अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए राशि को हिंदुओं के साथ भेदभाव बताकर उच्चतम न्यायालय में याचिका

अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए राशि को हिंदुओं के साथ भेदभाव बताकर उच्चतम न्यायालय में याचिका

उच्चतम न्यायालय

नई दिल्ली/दक्षिण भारत। केंद्र सरकार द्वारा पिछले बजट में अल्पसंख्यकों के लिए बड़ी राशि की घोषणा के बाद अब इस फैसले के खिलाफ कुछ लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा दिया है। एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले बजट में मोदी सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए कल्याणकारी योजनाओं हेतु 4,700 करोड़ रुपए की घोषणा की थी, जिसे कुछ लोगों ने हिंदुओं के साथ ‘भेदभाव’ करार दिया है।

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उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले इन पांच लोगों ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल कर इसे चुनौती दे डाली है। अब केंद्र सरकार को चार सप्ताह में इस याचिका पर जारी नोटिस का जवाब देना होगा। हालांकि, उक्त याचिका को लेकर केंद्र ने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि इसे बड़ी बेंच को स्थानांतरित कर दिया जाए।

इसके पीछे केंद्र की दलील है कि याचिक में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट, 1992 और संवैधानिक नियमों को चुनौती दी गई है। ऐसे में यह मामला पांच सदस्यों वाली संवैधानिक बेंच के पास जाना चाहिए। हालांकि, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के इस तर्क पर न्यायालय ने कहा कि इसे तीन सदस्यों वाली पीठ के पास भेजा जाएगा, फिर वहां से इसे और बड़ी पीठ के समक्ष भेजा जा सकता है।

क्या है मामला?
बता दें कि उत्तर प्रदेश के जिन पांच लोगों ने उच्चतम न्यायालय में यह याचिका दाखिला की है, उनके वकील का कहना है कि सरकार और संसद अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा नहीं दे सकतीं। वकील शंकर जैन तर्क देते हैं कि लाभकारी योजनाएं केवल उनके (अल्पसंख्यक) लिए जारी नहीं कर सकते।

‘अल्पसंख्यकवाद बनाम धर्मनिरपेक्षता’
वकील शंकर जैन कुछ और बिंदुओं का उल्लेख कर दावा करते हैं कि ये विभेदकारी हैं और समानता के अधिकार का उल्लंघन भी हैं। वे कहते हैं, सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए छात्रवृत्ति, वक्फ एवं वक्फ संपत्तियों को अनुचित लाभ विभेदकारी हैं। उन्होंने कहाकि हिंदुओं के मठ, ट्रस्ट एवं अखाड़ा आदि के लिए तो ऐसी योजनाएं नहीं हैं। इसलिए ये प्रावधान धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ हैं और इनसे समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है।

यही नहीं, याचिकाकर्ताओं के वकील अल्पसंख्यकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को लेकर भी कुछ सवाल उठाते हैं। याचिका में दावा किया गया है कि जिन अल्पसंख्यक समुदायों को नोटिफाई किया गया है, उनमें से भी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा नहीं है। इस प्रकार याचिका में सरकार और संसद के आदेश के ‘असंवैधानिक’ होने का दावा किया गया है।

सिर्फ एक समुदाय ले रहा फायदा, बाकी वंचित
याचिका में एक और बिंदु की तरफ ध्यान आकर्षित कर यह दावा किया गया है कि इसका ज्यादातर फायदा सिर्फ एक समुदाय ले रहा है, बाकी अल्पसंख्यक समुदाय इसके फायदों से वंचित हैं। याचिका में तर्क दिया गया है​ कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट के अंतर्गत कल्याणकारी योजनाओं की संख्या 14 है। हालांकि इनमें से अधिकतर मुसलमानों के लिए हैं। इससे दूसरे अल्पसंख्यकों तक फायदा पहुंच ही नहीं पाता।

इस याचिका में तर्क दिया गया है कि कानूनन राज्य अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में भेदभाव नहीं कर सकता। साथ ही ऐसे कानूनों के निर्माण को भी अनुचित बताया है जो धार्मिक अल्पसंख्यकों का एक अलग वर्ग के रूप में उल्लेख करते हैं। बता दें कि यह मामला ऐसे समय में सामने आया है जब केंद्रीय बजट आने वाला है और सरकार अल्पसंख्यकों के लिए अहम घोषणाएं कर सकती है।

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