समाधान का हिस्सा बनें

लोग सकारात्मक बदलाव तो चाहते हैं ...

समाधान का हिस्सा बनें

कोरी ख्वाहिशों और नारों से सुधार नहीं होगा

इस साल सर्वाधिक इंटरनेट सर्च और चर्चित वीडियो सामग्री की सूची पर नजर डालें तो पता चलता है कि लोगों की दिलचस्पी सेलिब्रिटीज की भव्य शादियों, उनसे जुड़ीं बातों, गेमिंग और अजब-गजब चीजों में खूब रही। एक तरफ हम चाहते हैं कि समाज में क्रांति आए, सकारात्मक बदलाव आए, दूसरी तरफ हमारी दिलचस्पी ऐसी सामग्री देखने में काफी ज्यादा है, जो आम लोगों के हालात में बेहतरी लाने में एक प्रतिशत योगदान भी नहीं दे सकती। लोग सकारात्मक बदलाव तो चाहते हैं, लेकिन उसके लिए योगदान देते समय गायब हो जाते हैं। लोगों की ख्वाहिश होती है कि महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह जैसे महापुरुषों के सपनों का भारत बने, लेकिन इंटरनेट सर्च और वीडियो सामग्री की सूची में ये नहीं हैं! यह हमारी सामूहिक विफलता है। हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। जब तक हमारी कथनी और करनी एक नहीं होगी, सकारात्मक बदलाव कैसे आएगा? हमारे जीवन में ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं, जिनमें थोड़ा-सा सुधार कर लें तो समग्र रूप में बहुत बड़ा सुधार हो सकता है। यहां सवाल पैदा होता है कि शुरुआत कौन करे? हर साल गौसेवा के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन होते हैं। जरूर होने चाहिएं। उन आयोजनों में लोग गौसेवा, गौरक्षा का संकल्प लेते हैं। ये अत्यंत शुभ संकल्प हैं, जिन्हें लेने के बाद उनका दृढ़ता से पालन करना चाहिए। लेकिन करेंगे कैसे? कितने घरों में लोग गाय का दूध लेते हैं? प्राय: औषधियां लेते समय गाय के दूध को प्राथमिकता दी जाती है। जैसे ही स्वास्थ्य अच्छा हुआ, लोग उससे मुंह मोड़ लेते हैं। गांव हो या शहर, लोग यह तर्क देकर गाय का दूध सस्ता लेना चाहते हैं कि इसमें घी कम आता है! अगर गौसेवा और गौरक्षा का संकल्प लेते हैं तो जरूरी नहीं कि ऐसा हर व्यक्ति गाय पाल ले। शहरों में जगह की कमी और रोजगार के सिलसिले में व्यस्तता के कारण हर व्यक्ति के लिए गौपालन संभव नहीं है, लेकिन वह इतना तो कर सकता है कि गाय का दूध दो रुपए ज्यादा देकर खरीद ले। इससे भी गौसेवा और गौरक्षा को बढ़ावा मिलेगा।

Dakshin Bharat at Google News
हर साल किसानों की आर्थिक चुनौतियों का मुद्दा खूब चर्चा में रहता है। इसके लिए सरकारों की खूब आलोचना की जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई किसान सख्त आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। उनके कल्याण के लिए सरकारें उतना काम नहीं कर पाईं, जितना करना चाहिए था। क्या किसानों का कल्याण करना सिर्फ सरकारों की जिम्मेदारी है? क्या जनता की कोई जिम्मेदारी नहीं है? अगर बाजारों में खरीदारी के तौर-तरीकों पर नजर डालें तो पाएंगे कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक शीतल पेय खूब खरीदे जाते हैं। उन्हें लेते समय कोई मोलभाव भी नहीं करता। शराब की दुकानों पर खूब भीड़ उमड़ती है। वहां कोई मोलभाव नहीं करता। गुटखा, खैनी, सिगरेट जैसी नशीली चीजें धड़ल्ले से बिकती हैं। उनकी कीमतों का प्रति किलो के हिसाब से आकलन करें तो पता चलता है कि ये बहुत महंगी हैं। इसके बावजूद इनका चलन कम नहीं हो रहा है। ये महंगी होने के साथ अत्यंत हानिकारक हैं। लोग इन्हें खरीदते समय मोलभाव नहीं करते, अपनी जेब पर भारी पड़ने पर भी इन्हें नहीं छोड़ते हैं। वहीं, सब्जी मंडी में नींबू पड़े-पड़े सड़ जाते हैं। आंवले सूख जाते हैं। तरबूज फेंकने पड़ते हैं। गाजरों की दुर्दशा होने पर वे या तो आवारा पशुओं का आहार बनती हैं या कूड़ेदान में डाल दी जाती हैं। ये सभी चीजें स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं। इन्हें खरीदते समय लोग एक-एक चीज का बारीकी से निरीक्षण करते हैं। अगर इनकी कीमतों में एक रुपए की बढ़ोतरी हो जाए तो ये बहुत ज्यादा महंगी लगती हैं। फिर भी लोग चाहते हैं कि किसानों की हालत सुधरे! जब हम खुद समाधान का हिस्सा नहीं बनेंगे तो समस्या कैसे दूर होगी? अगर हम समस्या का समाधान चाहते हैं, स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों का भारत बनाना चाहते हैं तो समाधान का हिस्सा बनना होगा। कोरी ख्वाहिशों और नारों से सुधार नहीं होगा।

About The Author

Related Posts

Dakshin Bharat Android App Download
Dakshin Bharat iOS App Download