पाठशाला में चरित्र-निर्माण

पाठशाला में चरित्र-निर्माण

निस्संदेह मनुष्य ने तकनीकी प्रगति बहुत की है


प्राचीन काल से लेकर आज तक शिक्षा व्यवस्था में बदलाव होते रहे हैं, इस उम्मीद के साथ कि ये समाज को सुधार की लेकर जाएंगे। सच यह भी है कि जो बच्चे आज शुरुआती कक्षाओं में हैं, उन्हें जैसी शिक्षा दी जा रही है, जैसा परिवेश उपलब्ध है, वे बड़ी कक्षाओं तक पहुंचते-पहुंचते बहुत कुछ उसमें से ही आत्मसात् करेंगे और एक दिन उसी के मुताबिक खुद को ढाल लेंगे। आखिर क्या वजह है कि देश-दुनिया में इतने स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी और शोध संस्थान आदि खुलने के बावजूद मनुष्य में वह सुधार ज्यादा दिखाई नहीं दे रहा, जिसकी उससे काफी उम्मीदें हैं? 

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इससे इतना तो संकेत जरूर मिलता है कि कहीं न कहीं कुछ कमी जरूर है। अन्यथा इतनी पोथियां पढ़ाने के बाद तो धरती पर स्वर्ग उतर आना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं है। निस्संदेह मनुष्य ने तकनीकी प्रगति बहुत की है। उसके साथ कुछ छूटा जरूर है, कहीं ह्रास अवश्य हुआ है। कोरोना काल में छोटे बच्चों और किशोरों के व्यवहार में बदलाव चिंताजनक हैं, जिन पर अभी खुलकर बात नहीं हो रही है। अमेरिका में हुए एक चर्चित पोल से साफ होता है कि संसाधनों से संपन्न उस देश में माता-पिता अपने नौनिहालों को लेकर फिक्रमंद हैं। इस बात के लिए नहीं कि वे बड़े होकर क्या बनेंगे, बल्कि इसलिए कि उनमें मानवीय गुणों का ह्रास होता जा रहा है। 

ऑनलाइन गेम बच्चों का भविष्य चौपट कर रहे हैं। अगर उन्हें रोका जाता है तो घर का माहौल बिगड़ता है। बच्चों में एक-दूसरे के साथ चीजें मिल-बांटकर खाने की प्रवृत्ति कम हो रही है। और भी कई बिंदु हैं, जिनके मद्देनजर अभिभावकों का यह कहना उचित ही है कि बेशक बच्चों को विज्ञान और गणित की पढ़ाई कराएं, लेकिन इतना काफी नहीं है। उनके चरित्र-निर्माण पर भी ध्यान दें।

ऐसे पोल भारत में होने चाहिएं, ताकि अभिभावकों की राय भारतीय सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से उभरकर आए। आमतौर पर स्कूलों का वातावरण अधिकाधिक विषयों की जानकारी हासिल कर लेने पर जोर देता है। कौन कितना योग्य है, उसका दायरा अंकों के प्रतिशत तक सीमित रह गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा शिक्षा का उद्देश्य किताबें पढ़ने, परीक्षाएं देने, अधिकाधिक अंक पाने और रोजगार हासिल कर लेना भर है, जबकि यह तो जीवन का बहुत छोटा-सा पक्ष है। 

शिक्षा तो वह है, जो मनुष्य में अन्तर्निहित मानवीय गुणों को जाग्रत कर दे। अगर कोई छात्र उच्च डिग्रीधारी होने के बावजूद सड़क पर कचरा फेंकता है, अभद्र शब्द बोलता है, फर्राटेदार अंग्रेजी में झूठ बोलकर किसी के अकाउंट से धोखाधड़ी कर लेता है तो निश्चित रूप से उसके निर्माण में कहीं न कहीं कमी जरूर रह गई। भारतीय संस्कृति में शिशु के भविष्य निर्माण के लिए गर्भावस्था से ही तैयारियां शुरू करने पर जोर दिया गया है। इस देश में अभिमन्यु जैसे योद्धाओं को कौन भूल सकता है! 

जब जीवन निर्माण का इतना गूढ़ विज्ञान हमारे पास है तो हमें इसका सदुपयोग करना ही चाहिए। आज जरूरी है कि स्कूलों में बच्चों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ यह भी सिखाया जाए कि वे अच्छे मनुष्य कैसे बनें, वे इस राष्ट्र के निर्माण में किस प्रकार योगदान दें। कोरोना काल के अनुभव के बाद यह सिखाना अत्यधिक प्रासंगिक हो गया है कि मिलकर संकट का मुकाबला कैसे करें, मुश्किल हालात में धैर्य कैसे रखें, सकारात्मक सोच कैसे पैदा करें आदि। अगर पुस्तकीय ज्ञान भरपूर हो, लेकिन विद्यार्थी का मन मानवता, नैतिकता, सकारात्मकता, आपसी सहयोग एवं सहिष्णुता से रिक्त होगा तो उसके परिणाम भयंकर होंगे।

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