कितने 'जलेबी' बाबा!
फटाफट चमत्कार चाहने वालों की भरमार है, जिससे जलेबी बाबा जैसों की चांदी हो गई है
तपस्वी अपने आचरण को लेकर हमेशा सजग रहते हैं
राजस्थान में एक पुरानी कहावत है- 'पाणी पीओ छाण, गुरु बणाओ जाण' अर्थात् पानी पीना हो तो उसे पहले छानें, ताकि वह स्वच्छ हो जाए और किसी को गुरु बनाना हो तो उसे पहले जानें, परखें। यदि उसमें उचित गुण पाएं तो ही उसे गुरु स्वीकार करें। जब नरेंद्रनाथ दत्त, जिन्हें आज संसार महामनीषी स्वामी विवेकानंद के नाम से जानता है, रामकृष्ण परमहंस से मिले थे तो उन्हें बहुत देखा, परखा, जांचा। जब नरेंद्र उनकी कथनी और करनी दोनों से संतुष्ट हो गए तो उन्हें गुरु स्वीकार किया। गुरु इतने महान थे तो शिष्य महान क्यों न होंगे!
भारत की पहचान तो इन्हीं संतों की वाणी और तपस्वियों के तप से है, जिनके अनुसरण से कितने ही लोगों का जीवन धन्य हो गया। यह विडंबना ही है कि हमारे देश की जनता कई बार असल संतों, तपस्वियों की पहचान में ग़लती कर बैठती है, जिसका फायदा कुछ लालची किस्म के लोग उठाते हैं। वे जनता को कोरे उपदेश देते हैं, लेकिन खुद भोगवाद में उलझे रहते हैं।हरियाणा में टोहाना के बहुचर्चित जलेबी बाबा का मामला भी इसी का एक उदाहरण है, जिसे कई महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामले में 14 साल की सजा सुनाई गई है। जब फ़तेहाबाद की फास्ट ट्रैक अदालत ने जलेबी बाबा उर्फ अमरपुरी उर्फ बिल्लू को यह सज़ा सुनाई तो एक बार फिर यह सवाल चर्चा में आ गया कि अध्यात्म के क्षेत्र में बार-बार ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं। अध्यात्म तो संयम, तपस्या और त्याग का मार्ग है। अगर इसमें भी विलासी प्रवृत्ति के लोग गुरु का रूप धरकर आ जाएंगे तो लोगों का विश्वास डगमगाना स्वाभाविक है। जलेबी बाबा पर महिलाओं को नशीली चीज खिलाने और आपत्तिजनक वीडियो बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करने जैसे अत्यंत गंभीर आरोप भी थे, जो अदालत में साबित हो गए।
संत का वेश तो बहुत पवित्र होता है। जो इसे धारण करता है, उस पर विशेष दायित्व भी आ जाते हैं। प्राचीन काल में ऐसे सिद्ध तपस्वियों को देखकर चक्रवर्ती सम्राट अपना सिंहासन छोड़कर नतमस्तक हो जाते थे। उन संतों की वाणी में तेज होता था, क्योंकि वे त्याग का जीवन जीते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होता था। वे जनता को ज्ञान, भक्ति और कर्म का उपदेश देते थे।
दुर्भाग्य से आज समाज में इन गुणों को ग्रहण करने के इच्छुक लोग कम रह गए हैं। फटाफट चमत्कार चाहने वालों की भरमार है, जिससे जलेबी बाबा जैसों की चांदी हो गई है। ये कहने को तो बाबा या साधु कहलाते हैं, लेकिन असल में कामनाओं के दास होते हैं। इनके भोलेभाले 'भक्त' न तो इनके ज्ञान की परख करते हैं और न ही इनका तप देखते हैं। चूंकि संत का वेश होता है तो तुरंत कोई आपत्ति भी नहीं करता, जिससे ऐसे लोगों का दुस्साहस बढ़ता जाता है। फिर जब भंडाफोड़ होता है तो संपूर्ण अध्यात्म जगत पर सवाल उठने लगते हैं, जो कि उचित नहीं है।
इसी देश में कई लोगों ने महलों से लेकर करोड़ों-अरबों की दौलत का त्याग कर संयम और साधुता का मार्ग अपनाया है। ये तपस्वी अपने आचरण को लेकर हमेशा सजग रहते हैं। न तो प्रसिद्धि की चाह रखते हैं और न फटाफट चमत्कार या शॉर्टकट का उपाय बताते हैं। असल साधुत्व यही है, जिसे जनता को पहचानना चाहिए।
जो लोग नैतिकता और भक्ति के उपदेश तो खूब देते हैं, लेकिन स्वयं ही उनका पालन नहीं करते, कामिनी और कंचन की चाह रखते हैं, जिनका पूरा ध्यान ज्यादा से ज्यादा दौलत बटोरने पर होता है, जिनका संयम से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता, बल्कि वे घोर उच्छृंखल एवं स्वेच्छाचारी होते हैं - ऐसे मनुष्य किसी भी सूरत में गुरु कहलाने के अधिकारी नहीं होते हैं। इनसे दूर रहने में ही कल्याण है।