फर्जी खबरों का जंजाल
फर्जी खबरों के प्रसार से सच्ची जानकारी दब जाती है और गलत सूचना में लोकतांत्रिक चर्चा को कमजोर करने की ताकत होती है
सीजेआई का अनुभव हर उस व्यक्ति का अनुभव है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समाचारों की विश्वसनीयता का पक्षधर है
'डिजिटल युग में नागरिक स्वतंत्रता को कायम रखना: निजता, निगरानी और स्वतंत्र अभिव्यक्ति' विषय पर प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की एक व्याख्यान के दौरान यह टिप्पणी अत्यंत प्रासंगिक है कि फर्जी खबरों का लक्ष्य समाज के मूलभूत तत्त्वों अर्थात् सत्य की स्थिरता को नष्ट करना है। बेशक फर्जी खबरों के प्रसार से सच्ची जानकारी दब जाती है और गलत सूचना में लोकतांत्रिक चर्चा को कमजोर करने की ताकत होती है। आज सोशल मीडिया के प्रसार के साथ फर्जी खबरें इस कदर बेलगाम होती जा रही हैं कि जब तक उनकी हकीकत सामने आती है, उन्हें फैलाने वालों का मकसद पूरा हो जाता है। कई बार ऐसा होता है कि आकर्षक शीर्षक के साथ लोगों को लुभाया जाता है, ताकि वे उस पर क्लिक करें। बाद में अंदर कुछ और सामग्री होती है। कुछ साल पहले राजस्थान में सोशल मीडिया पर एक 'ख़बर' खूब वायरल हुई थी, जिसमें यह दावा किया गया था कि एक विभाग में हजारों पद खाली हैं, लेकिन कोई भी आवेदन नहीं कर रहा है! सरकारी नौकरी के इच्छुक कई युवाओं ने उस लिंक पर क्लिक किया, जिसके बाद उनके मोबाइल फोन में वायरस इंस्टॉल हो गया। उसने उनके फोन में सेंध लगाई और आर्थिक नुकसान भी पहुंचाया। इसी तरह बिहार में एक 'खबर' वायरल हो गई थी कि सरकार हर छठव्रती के डाकघर बचत खाते में हजारों रुपए भेजेगी। अगले ही दिन डाकघर के सामने लोगों की भीड़ लग गई। अधिकारियों ने उन्हें खूब समझाया कि ऐसी कोई योजना नहीं है, लेकिन लोगों को विश्वास नहीं हुआ और वे घंटों कतारों में खड़े रहे। समाचार प्राप्त करने के जितने माध्यम हैं, उनमें आज भी अख़बार सबसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है। सोशल मीडिया, वेबसाइट, टीवी, रेडियो ... भले ही जल्दी समाचार प्रसारित कर दें, लेकिन विश्वसनीयता और गंभीरता के मामले में अख़बार की प्रतिबद्धता ज्यादा दिखाई देती है। चाहे समाचार अगले दिन पहुंचे, लेकिन तथ्यों और जिम्मेदारी के साथ पहुंचे। खासतौर से सोशल मीडिया में इस प्रतिबद्धता का अभाव नजर आता है।
फर्जी खबरों में नेताओं-अधिकारियों के बयानों का तो जिक्र होता ही है, पिछले दिनों सीजेआई चंद्रचूड़ के बारे में भी एक पोस्ट वॉट्सऐप समूहों में खूब वायरल हुई थी। उनकी तस्वीर के साथ एक 'बयान' पोस्ट किया गया था, जो उन्होंने नहीं दिया था। लोगों ने बिना किसी जांच-पड़ताल के उसे शेयर किया। धुआंधार शेयरिंग के बाद जब यह ख़बर आई कि सीजेआई के नाम पर वायरल किया जा रहा बयान असत्य है, तो उसे कम ही लोगों ने पढ़ा और फर्जी खबर की तुलना में कम शेयर किया। इस तरह फर्जी खबर के सामने सच्ची खबर दबकर ही रह गई। कोरोना काल को लेकर सीजेआई ने जो अनुभव साझा किया, वह हर उस व्यक्ति का अनुभव है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समाचारों की विश्वसनीयता, दोनों का पक्षधर है। सीजेआई के शब्दों में - 'मुझे याद है कि जब देश दुखद कोविड-19 महामारी का सामना कर रहा था, तब इंटरनेट फर्जी खबरों और अफवाहों से भरा हुआ था। मुश्किल वक्त में हास्य राहत का एक स्रोत है, लेकिन यह हमें इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं पर पुनर्विचार करने के लिए भी मजबूर कर रहा था।' उस समय कई यूट्यूब चैनल मनमर्जी से खबरें प्रसारित कर रहे थे। एक चैनल तो मशहूर लोगों की मृत्यु की खबरें चला रहा था, जबकि वे सही-सलामत थे। एक और चैनल मास्क हटाने तथा कुछ खास पदार्थों के सेवन की सलाह दे रहा था। वह सलाह पूर्णत: अवैज्ञानिक और हानिकारक थी। उस पर किसी ने अमल किया होगा तो जरूर संक्रमण की चपेट में आया होगा। ऐसी गतिविधियों को न तो पत्रकारिता कहा जा सकता है और न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इनका समर्थन किया जा सकता है। फर्जी खबरें फैलाने का उद्देश्य सनसनी के जरिए चर्चा में आना, जल्द अमीर बनने की ख्वाहिश, अफरा-तफरी फैलाना और देशविरोधी तत्त्वों की मदद करना भी हो सकता है। सच को जिंदा रखने के लिए झूठ और उसका प्रचार-प्रसार करने वालों पर शिकंजा कसना जरूरी है।