हरियाणा में जीती बाजी हार गई कांग्रेस
हालांकि हरियाणा में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं था
Photo: Congress X account
सुरेश हिंदुस्तानी
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हालांकि हरियाणा में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं था| क्योंकि वह सत्ता में नहीं थी| हरियाणा कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व भी इस बात को जानता था कि अगर उसको सत्ता मिल जाती तो इसका श्रेय प्रादेशिक नेताओं को कभी नहीं मिलता, लेकिन हार का हथोड़ा उनके सिर पर ही फोड़ा जा रहा है| राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि कांग्रेस के अंदर ही प्रादेशिक नेताओं में गंभीर जोर आजमाइश चल रही थी, इसका कारण सत्ता प्राप्ति के मुख्यमंत्री पद की चाहत ही था| लेकिन इस राजनीतिक अस्तित्व को दिखाने और सामने वाले के मिटाने के खेल ने ही कांग्रेस को ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया है| कांग्रेस हरियाणा में लम्बे समय से सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रही थी| इसका एक कारण यह भी माना जा सकता है कि कांग्रेस के नेताओं ने लम्बे समय तक शासन का सुख भोगा है, इसलिए उनको सत्ता के सुख की आदत सी हो गई है| इस बार हरियाणा में प्रदेश के प्रमुख नेताओं के बीच अलग से एक राजनीतिक युद्ध जैसा दिखाई दे रहा था| हरियाणा में कांग्रेस, भाजपा से कम अपने ही नेताओं से ज्यादा लड़ रही थी| कहा जाता है कि किसी भी प्रकार की लड़ाई में दुश्मन तो स्पष्ट दिखाई देता है, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो दिखते तो बिलकुल दोस्त जैसे ही हैं, लेकिन वे मुंह में राम बगल में छुरी रखकर चलते हैं| जहां अवसर मिलता है, वे सामने वाले के पैर खींचने का काम करते हैं| प्रदेश में कांग्रेस नेताओं के बीच इसी प्रकार की दुश्मनी दिखाई दी| प्रदेश की प्रमुख महिला नेता शैलजा तो जैसे कोपभवन में ही बैठ गई थीं| वे जब सक्रिय हुई तब तक कांग्रेस बहुत प्रचार अभियान में बहुत पीछे जा चुकी थी|
हरियाणा की राजनीतिक स्थिति का आकलन किया जाए तो बहुत पहले यह परिलक्षित होने लगा था कि इस बार भाजपा की सरकार नहीं बन सकती| क्योंकि हरियाणा में भाजपा के विरोध में किसान और पहलवान एक प्रकार से राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए देश भर के आंदोलनों के सूत्रधार बने हुए थे, कांग्रेस चाहती तो इस वातावरण का राजनीतिक लाभ प्राप्त कर सकती थी, लेकिन कांग्रेस के नेता स्थिति का अध्ययन इसलिए नहीं कर सके, क्योंकि वे इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त हो चुके थे कि कांग्रेस की सरकार बनने से कोई रोक नहीं सकता| बस कांग्रेस यहीं बड़ी चूक कर गई और हरियाणा में कांग्रेस के सपने एक बार फिर चकनाचूर होते चले गए| ऐसे अब कांग्रेस को सिरे से चिंतन और मंथन करने की आवश्यकता है| हालांकि देश में २०१४ के बाद विभिन्न प्रकार के ४७ चुनाव हुए, जिसमें से ३६ चुनावों में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा| हर पराजय के बाद कांग्रेस में चिंतन और मंथन करने की बात की जाती है, लेकिन इस चिंतन में शीर्ष नेतृत्व पर उंगली उठाने का साहस किसी में नहीं होता| अंततः वही होता है, जैसा राहुल गांधी चाहते हैं| वर्तमान में भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, लेकिन उनकी भूमिका कितनी निर्णायक होती है, यह सभी जानते हैं|
हरियाणा में भाजपा की पुनः सरकार बनने का रास्ता अब साफ हो गया है, लेकिन कई मायनों में इसे भाजपा की सफलता नहीं माना जा सकता| चुनाव से पूर्व के राजनीतिक हालात भाजपा के पक्ष में कभी भी दिखाई नहीं दिए और न ही भाजपा सरकार के कामकाज से जनता प्रसन्न ही थी| पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को सत्ता के सिंहासन से उतार कर भाजपा ने यह संकेत तो कर ही दिया था कि भाजपा के पक्ष में सब कुछ ठीक नहीं था| भाजपा ने मुख्यमंत्री बदल कर इस माहौल को परिवर्तित करने का प्रयास किया| भाजपा का यह कदम उसके लिए संजीवनी का काम कर गया जो भाजपा के लिए जीवनदान साबित हुआ| वहीं कांग्रेस की कमजोरी यह भी रही कि वह राजनीतिक वातावरण का अध्ययन करने में चूक गई| हरियाणा में कांग्रेस का प्रदेश नेतृत्व गुटों में विभाजित है| कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा स्वयं को कांग्रेस का सर्वेसर्वा मानकर ही राजनीति करते रहे| यही कांग्रेस के आत्मघाती साबित हुआ| अब कांग्रेस के नेताओं को यह सिखाने की आवश्यकता है कि बदले हुए राजनीतिक हालात में राजनीति कैसे की जाती है, क्योंकि अब राजनीति परिदृश्य बदल चुका है| देश के कई क्षेत्रीय दल कांग्रेस के साथ आना नहीं चाहते| राजनीतिक मज़बूरी उनको साथ बनाए हुए है|