काम के घंटे और गुणवत्ता
उत्पादकता कितनी होगी, गुणवत्ता कैसी रहेगी?
जब कर्म को पूजा मानते हैं तो उसमें आनंद आना ही चाहिए
'काम के घंटों' को लेकर छिड़ी बहस के बीच कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न उभरे हैं, जिन पर बात होनी चाहिए। हमारे देश में कर्म को पूजा कहा गया है। अगर इस आध्यात्मिक पहलू को ध्यान में रखकर काम के घंटों पर विचार करें तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर मंदिर में भगवान को भोग अर्पित करने और उन्हें विश्राम कराने का समय निर्धारित होता है। 'भक्त' को भी विश्राम की जरूरत होती है, ताकि अगले दिन नई ऊर्जा और प्रसन्नता के साथ 'भक्ति' कर सके। काम के घंटों के साथ उसकी गुणवत्ता बहुत मायने रखती है। महानगरीय पृष्ठभूमि के लोगों को शायद न पता हो, लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग इस बात से खूब परिचित होंगे कि खेतों में साथ मिलकर काम करने, वातावरण को खुशनुमा बनाकर रखने और निर्धारित लक्ष्य को समय से पहले हासिल करने की लगन रखने से काम बहुत जल्दी पूरा हो जाता है। राजस्थान में बाजरे की कटाई के दौरान एक पुरानी व्यवस्था के तहत परिचित लोग (प्राय: एक-दो दर्जन) सुबह जुटते हैं और पूरे जोश के साथ कटाई शुरू कर देते हैं। उनके सामने लक्ष्य होता है कि आज दिन ढलने से पहले ही काम पूरा करके रहेंगे। खेत के मालिक की ओर से उन्हें खीर-जलेबी, सब्जी-पूड़ी आदि का भोजन प्रस्तुत किया जाता है। जैसे-जैसे शाम नजदीक आती है, उन लोगों का जोश बढ़ता जाता है, थकान का कहीं नामो-निशान नहीं होता। माहौल में गीत और भजन गूंजते रहते हैं। हंसी-मजाक का दौर चलता रहता है। देखते ही देखते फसल कट जाती है। इसी तरह कुछ दिन बाद किसी और किसान के यहां फसल की कटाई होती है। यह व्यवस्था पूरी तरह एक-दूसरे के लिए सहयोग की भावना पर आधारित होती है। सोचिए, अगर इन लोगों पर यह शर्त थोप दी जाए कि 'कम से कम 12 घंटे काम करना है, सिर्फ काम पर ध्यान देना है, किसी से कोई बातचीत नहीं, कोई गीत-भजन नहीं, कोई हंसी-मजाक नहीं, कोई खीर-जलेबी नहीं', तो उत्पादकता कितनी होगी, गुणवत्ता कैसी रहेगी?
उस सूरत में लोग खुद को किसी बंधक की तरह महसूस करने लगेंगे और अगली बार वहां जाने से ही तौबा कर लेंगे। यह सच्चाई है। कार्यस्थल के माहौल, शर्तों और सुविधाओं का लोगों पर गहरा प्रभाव होता है। यह स्पष्ट रूप से नतीजे में झलकता है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि हर व्यक्ति को अपने कार्यस्थल पर ईमानदारी से मेहनत करनी चाहिए, आज का काम कल पर नहीं टालना चाहिए, अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करनी चाहिए। वहीं, नियोक्ता का भी कर्तव्य है कि वह अपने कर्मचारियों को बहुत अच्छा माहौल दे, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखे, कर्मचारियों का उत्साह बढ़ाते हुए ऐसी नीतियां लागू करे, जिनसे नतीजे बेहतर आएं। लोगों को काम के घंटों में आनंद आना चाहिए, न कि वह उन्हें किसी सज़ा की तरह महसूस होना चाहिए। काम के अधिक घंटों के पक्ष में चीन और जापान जैसे देशों के उदाहरण दिए जाते हैं। बेशक ये देश आर्थिक दृष्टि से बहुत संपन्न हो गए हैं, लेकिन यह संपन्नता इन्होंने जिस तरह हासिल की है, उसके नतीजों पर चर्चा होनी चाहिए। हर साल जापान में कई लोग अपने दफ्तरों में ही दम तोड़ देते हैं, जिसे वहां 'कारोशी' कहा जाता है। इसका मतलब होता है- 'काम के दबाव की वजह से होने वाली मौत।' इन दोनों ही देशों में कुल प्रजनन दर बुरी तरह गिर गई है। परिवार टूटते जा रहे हैं। कुछ इलाके तो ऐसे हैं, जहां महीनों/वर्षों से किसी बच्चे का जन्म नहीं हुआ। लोगों में अकेलापन बढ़ने से मनोरोग बढ़ गए हैं। वे काम की भागमभाग में मशीन बन गए हैं। वहां बहुत लोग तो ऐसे हैं, जिन्हें यह याद नहीं कि पिछली बार कब हंसे या कब रोए थे! अगर सोशल मीडिया पर कोई चुटकुला पढ़ते हैं तो चेहरा गंभीर ही बना रहता है। कुछ क्लब जरूर खुल गए हैं, जिनमें लोगों को समय-समय पर हंसना और रोना सिखाया जाता है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इन क्रियाओं से मन हल्का होता है, कई मानसिक समस्याएं स्वत: दूर हो जाती हैं। हमें इन देशों के अनुभवों से सबक लेना चाहिए। काम के घंटे उतने ही होने चाहिएं, जिनसे लक्ष्य जरूर प्राप्त हो, साथ ही संबंधित व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न हो। उसका पारिवारिक व सामाजिक जीवन अच्छा रहे। जब कर्म को पूजा मानते हैं तो उसमें आनंद आना ही चाहिए।