विश्व धर्म के लिए श्रीकृष्ण की नीतियों का अनुसरण जरूरी

भगवान कृष्ण गीता के जरिए योग, कर्म, भक्ति और ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं

विश्व धर्म के लिए श्रीकृष्ण की नीतियों का अनुसरण जरूरी

श्रीकृष्ण की दूरदर्शी नीतियों से ही अशांति, हिंसा, भेदभाव खत्म किए जा सकते हैं

.. अखिलेश आर्येंदु ..

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‘परित्राणाम साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम| धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥ धर्म इस जगत् का शाश्वत तत्त्व है| प्रकृति के पांचों तत्त्वों, मन और बुद्धि सब धर्म के ही हिस्से हैं| लेकिन भगवान श्री कृष्ण उस धर्म की स्थापना के लिए जन्म लेते हैं जिनकी हानि से मानवता का सर्वनाश हो जाता है| आज दुनिया में इसी धर्म की जरूरत है| जिससे इंसानियत जिंदा रहे| समाज को संतुलित और संचालन के लिए गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्ण का विभाजन दूसरी सबसे बड़ी जरूरत है| श्री कृष्ण इन चारों वर्णों के भी निर्माता और संचालक हैं| वे गीता में कहते हैं- वे गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों को बनाने वाले हैं| लेकिन वे बनाकर उन वर्णों को कर्म करने की आजादी भी देते हैं| गौर तलब है भगवान कृष्ण गीता के जरिए गुण, कर्म की महत्ता पर जोर देते हैं, जन्मगत जाति व्यवस्था उनके रचना का हिस्सा नहीं है| इसलिए जातिवाद या जन्मगत जाति व्यवस्था वैदिक दर्शन का हिस्सा नहीं है| आज समाज से जन्मगत ऊंच-नीच, छुआछूत और भेदभाव को खत्म करने की बहुत जरूरत बतायी जा रही है| भगवान कृष्ण के विचार इसमें बहुत मददगार साबित हो सकते हैं|   
   
भगवान कृष्ण गीता के जरिए योग, कर्म, भक्ति और ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं| जिसके लिए जो जरूरी है, उसे हासिलकर जीवन को बंधनं से छुटकारा पा सकता है| यदि चारों का अभ्यास व्यक्ति करे तो उसका इहलोक और परलोक दोनों सुधर सकते हैं| भगवान श्री कृष्ण का जीवन धर्म की संस्थापना के लिए है| वे परा-अपरा दोनों तरह की विद्याओं को जानने वाले हैं| गीता में वे कहते हैं-जो व्यक्ति डर से रहित, दिल से सदा साफ, तत्त्वज्ञान के लिए जिज्ञासु, योग-ध्यान में समता से युक्त, सात्विकता के गुणों को धारण करता है, वह ही मोक्ष हासिल करता है| वे गीता में कहते हैं-यज्ञ-ंहवन करके प्रकृति और समाज को पवित्र करता है, वह सच्चे मायने में धर्म को जानता है| भगवान कहते हैं, हमें अपनी अच्छाइयों और बुराइयों दोनों पर नज़र रखनी चाहिए| अच्छाइयां उस पीपल के पेड़ की तरह हैं जो खुद को शीतल करता है और राहगीर को भी| उनकी नीति कहती है कि जीवन में धर्म उतना ही जरूरी जितना की धन-दौलत|  

भगवानश्री कृष्ण ने अपने अनुपम कार्यों, व्यवहारों और विचारों से यह साबित कर दिया था कि धर्म की रक्षा के लिए यदि प्राण भी देना हो, तो पीछे नहीं हटना चाहिए| वे गीता क जरिए अर्जुन को महज धर्म की स्थापना के लिए अपना परम कर्तव्य पालन का उपदेश व संदेश ही नहीं देते, बल्कि मोह, भ्रम, द्वंद्व और मन की अस्थिरता से पैदा होने वाली समस्याओं, संकटों और दुर्बलताओं को दूर करने के लिए शुभ संकल्प व कर्म वीरता को अपनाने के लिए प्रेरित भी करते हैं| वे अपने सद्गुणों के बल पर उत्तम वर्ण, कुल, परिवारक, समाज और धन-दौलत को अर्जित किया, वे आज भी उपयोगी हैं| वे कहते हैं- सद्गुणहीन व्यक्ति अच्छे कुल, परिवार और समाज में पैदा होकर भी पतन को प्राप्त हो जाता है| वे आठों सिद्धियों और नौ निधियों के भंडार हैं| उनमें भगवत्ता की सोलह कलाएं हैं जो इहलोक और परलोक दोनों को सफल करती हैं|

महाभारत में उन्होंने सत्य, शुभ, त्यागी, अपरिग्रही, मैत्री स्वभाव वाले पांडव का साथ ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें प्रेरणा और धर्म की शक्ति भी देते रहे| श्री कृष्ण के उपदेश विश्व समाज में धर्म और मूल्यों का निर्माण करने वाले हैं| कहते हैं मन को निर्मल बनाना उतना ही जरूरी है जितना की सहज| साथ में प्राणी मात्र के हित की कामना करना मनुष्य का पावन धर्म और कर्म है| जहां धर्म और धैर्य साथ-साथ होते हैं, उनकी सफलता सुनिश्चित होती ही है| इसलिए पांडव युद्ध में ही विजयी नहीं हुए, बल्कि स्वर्ग के राज्य में भी विजय पताका फहराई| उनके योग में वैज्ञानिकता, संस्कृति-प्रियता, आध्यात्मिकताक, धार्मिकता और दार्शनिकता का समावेश है| दीनहीनता की वजह किस्मत नहीं बल्कि अपने वे कर्म हैं, जो नकारात्मक, अशुभ संकल्प और नियम-मर्यादा से दूर होकर किए जाते हैं| इंसान अपने अवचेतन में कभी यह नहीं बिठा पाता कि उसकी जिंदगी का मकसद क्या है| उनका योग अंदर व बाहर दोनों से पूर्ण व सकारात्मक है| श्री कृष्ण उपदेश करते हैं कि इंसान होने के बावजूद हम अपनी बुद्धि, विवेक, शक्ति और क्षमता के संबंध में कभी निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं करते, इसलिए न तो धर्म हासिल कर पाते हैं और न तो अर्थ और मोक्ष का ही|

आज दुनिया में जो अशांति, हिंसा, भेदभाव और धर्म के नाम पर झगड़े-फंसाद हैं, वे श्री कृष्ण की दूरदर्शी नीतियों से ही खत्म किए जा सकते हैं| दुनिया को बेहतर और ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण बनाने के लिए योगेश्वर की नीतियों के अपनाने के अलावा कोई रास्ता दिखता नहीं| श्री कृष्ण ने शिशुपाल को सौ बार क्षमाकर समाज को यह संदेश दिया कि क्षमा करना जहां एक खाशियत है वहीं पर सीमा से बाहर जाकर क्षमा करना कायरता भी है| इसलिए कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि परमात्मा ने हममें कोई गुण या खाशियत दी ही नहीं है| यह कहें कि सारी की सारी अच्छाइयॉं केवल मुझमें ही हैं, यह भी उचित नहीं| वह चाहे व्यक्ति के साथ हो या राजा अथवा देश के साथ| आज जरूरत इस बात की है कि भगवान श्री कृष्ण के जीवन, नीतियों, विचारों और धर्म के उपदेशों को जिंदगी का हिस्सा बनाएं और समाज में फैले तमाम विपरीत हालातों को खत्म करने और बेहतर समाज निर्माण के लिए संकल्प के साथ जीवन गुजारें| 

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