महबूबा मुफ्ती की 'अजीब दलीलें'

महबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी का लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन का रिपोर्ट कार्ड क्या कहता है?

महबूबा मुफ्ती की 'अजीब दलीलें'

पीडीपी को जम्मू-कश्मीर में डाले गए वोटों का सिर्फ 8.48 प्रतिशत मिला था

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने विधानसभा चुनाव न लड़ने के पीछे जो कारण गिनाए, वे हकीकत से परे हैं। उन्हें न तो चुनाव लड़ने से कोई रोक रहा है और न ही इस बात को लेकर कोई दबाव डाल सकता है कि वे चुनाव लड़ें। इन वरिष्ठ नेत्री का यह कहना राजनीति की जरा-सी भी समझ रखने वाले व्यक्ति के गले नहीं उतरेगा कि अगर वे मुख्यमंत्री बन गईं तो भी इस केंद्र शासित प्रदेश में अपनी पार्टी का एजेंडा पूरा नहीं कर पाएंगी। क्या खूब दलील दी है! 

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यह तो वही बात हुई कि मैं इम्तिहान में नहीं बैठूंगा, क्योंकि उसमें अव्वल आ गया तो अगली कक्षा में अपनी मर्जी की किताबें नहीं चला सकता! कोई विद्यार्थी इम्तिहान में बैठेगा, तभी तो पता चलेगा कि उसने सालभर कितनी पढ़ाई की है। बैठे-बैठाए यह कह देना कि 'मेरे नंबर तो सबसे ज्यादा आएंगे, लेकिन इससे आगे कोई फायदा नहीं है', अपने प्रदर्शन से जुड़ीं खामियों को छिपाने की एक कोशिश ही मानी जाएगी। 

महबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी का लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन का रिपोर्ट कार्ड क्या कहता है? पीडीपी को जम्मू-कश्मीर में डाले गए वोटों का सिर्फ 8.48 प्रतिशत मिला था। केंद्र शासित प्रदेश की किसी भी लोकसभा सीट पर इस पार्टी का खाता तक नहीं खुला था। जम्मू और कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस को 2 सीटें और भाजपा को 2 सीटें मिलीं, जबकि एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी। महबूबा मुफ्ती अनंतनाग-राजौरी से खड़ी हुई थीं, जहां उन्हें शिकस्त का सामना करना पड़ा था, वह भी 2,81,794 वोटों के अंतर से! इस सीट से नेशनल कॉन्फ्रेंस के अल्ताफ अहमद जीते थे। 

पीडीपी किसी भी सीट पर खास कमाल नहीं दिखा पाई थी। बारामूला में तो वह टक्कर में ही नहीं थी। वहां पीडीपी की 4,44,993 वोटों के अंतर से करारी हार हुई थी। बारामूला से उमर अब्दुल्ला भी 2,04,142 वोटों के अंतर से हारे थे। उनके भी ऐसे कई बयान हैं, जिनकी आलोचना की जा सकती है, लेकिन उन्होंने अभी तक इतना 'ज़बर्दस्त' आत्मविश्वास नहीं दिखाया कि 'सत्ता तो मिल जाएगी, लेकिन उससे कोई फायदा नहीं, चूंकि पार्टी का एजेंडा पूरा नहीं कर पाऊंगा!'

चुनावी राजनीति में हार-जीत होती रहती हैं। बड़े-बड़े नेता चुनाव हार जाते हैं। उनमें से कई बाद में जीत भी जाते हैं। रही बात एजेंडे की, तो किसी भी राजनीतिक दल और उससे जुड़े नेताओं का एजेंडा क्या होना चाहिए? यही कि जनता का कल्याण हो, समाज में खुशहाली आए, हालात में बेहतरी आए, सद्भाव का माहौल हो और देश मजबूत हो। क्या भारत में ऐसा कोई कानून है, जो नेताओं को ये काम करने से रोके? अगर नेताओं की नीयत अच्छी हो और वे जनहित एवं राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए ईमानदारी से काम करें तो कौन उनकी राह में अड़ंगा लगा सकता है? 

महबूबा मुफ्ती के शब्दों - 'मैं भाजपा के साथ एक सरकार की मुख्यमंत्री रही हूं, जिसने (साल 2016 में) 12,000 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी वापस ले ली थी। क्या हम अब ऐसा कर सकते हैं? मैंने (प्रधानमंत्री) मोदी के साथ सरकार की मुख्यमंत्री के रूप में अलगाववादियों को बातचीत के लिए आमंत्रित करने के वास्ते एक पत्र लिखा था। क्या आप आज ऐसा कर सकते हैं? मैंने जमीनी स्तर पर संघर्ष विराम (लागू) करवाया। क्या आप आज ऐसा कर सकते हैं?' - का क्या मतलब है? 

क्या वे यह कहना चाहती हैं कि उन्हें या किसी भी नेता को मुख्यमंत्री का पद इसलिए मिले, ताकि वह हजारों लोगों के खिलाफ दर्ज प्राथमिकियां वापस ले ले, अलगाववादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के बजाय उनसे बातचीत करे और संघर्ष विराम लागू करवाए? ये कैसी दलीलें हैं? 

याद करें, महबूबा मुफ्ती ने तिरंगे के बारे क्या बयान दिया था? क्या एक वरिष्ठ नेत्री, जो मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं, से उस बयान की आशा की जा सकती थी? पीडीपी का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, यह जम्मू-कश्मीर के मतदाता तय करेंगे, लेकिन पार्टी के कर्ताधर्ता का चुनावी मुकाबले से पहले 'अजीब दलीलें' देकर पीछे हट जाना जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुंह मोड़ना ही कहलाएगा।

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