पतन के मार्ग पर बांग्लादेश?

बांग्लादेश मेंशिक्षकों से जबरन इस्तीफे लिखवाए गए

पतन के मार्ग पर बांग्लादेश?

क्या मोहम्मद यूनुस और उनकी मंडली ऐसा ही बांग्लादेश बनाना चाहते हैं?

बांग्लादेश में जारी उथल-पुथल के बीच कई शिक्षकों से जबरन इस्तीफे लिए जाने की घटनाएं अत्यंत निंदनीय हैं। जो देश अपने शिक्षकों का अपमान करता है, उसका पतन जरूर होता है। महाभारत में ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जब दुर्योधन ने अपने शिक्षक द्रोणाचार्य के साथ अमर्यादित व्यवहार किया था। उसका नतीजा कुरुक्षेत्र में सबने देखा था। 

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आज बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस 'सुधारों' की बात तो कर रहे हैं, लेकिन उनके राज में जो 'बिगाड़' हो रहा है, उसे सुधारने में इस पड़ोसी देश को दशकों लग सकते हैं। 

बांग्लादेश में जिन शिक्षकों से जबरन इस्तीफे लिखवाए गए, उनकी संख्या 50 से ज्यादा बताई जा रही है और उनमें लगभग सभी अल्पसंख्यक समुदायों से हैं। इन शिक्षकों में से कई तो वे हैं, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी इस देश में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में लगा दी। अब उम्र के इस पड़ाव में उनसे रोजी-रोटी छीन लेना शर्मनाक है। ये लोग कहां जाएंगे? क्या काम करेंगे? 

जो इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि बांग्लादेश हमारा देश है, हम यहां शिक्षा का उजाला फैलाएंगे, इसकी नस्लों को संवारेंगे तो ज़िंदगी भी सुकून से कट जाएगी; अब उनके पास कोई काम नहीं है। एक झटके में सब सड़क पर आ गए! किससे मदद की गुहार लगाएं? किसी ने नहीं सोचा होगा कि नोबेल पुरस्कार विजेता 'अर्थशास्त्री' के देश की बागडोर संभालते ही ऐसे 'अनर्थ' की शुरुआत होगी! जब इन शिक्षकों से इस्तीफा लिया गया तो इनकी आंखों से आंसू छलक रहे थे। 

ये लोग इतने मजबूर, इतने लाचार कभी नहीं रहे। सोशल मीडिया पर इनकी तस्वीरें देखकर विदेशी आक्रांताओं से जुड़ीं उन घटनाओं की यादें ताजा हो जाती हैं, जिनके बारे में हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा था। विदेशी आक्रांता हमारे विश्वविद्यालयों और पुस्तकालयों पर हमले क्यों करते थे? वे उनमें आग क्यों लगाते थे?

इसके पीछे उनकी मंशा युगों-युगों से अर्जित ज्ञान को नष्ट करने की थी, ताकि लोग मानसिक रूप से भी उनके गुलाम बन जाएं। उसके बाद वे अपनी महानता के झूठे किस्से लिखवाते थे। बांग्लादेश (तब यह पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था) में ज्ञान-विज्ञान को नष्ट करने के ऐसे प्रयास पहले भी हो चुके हैं। 

वर्ष 1970-71 में जब यहां मुक्ति संग्राम की चिंगारी ज्वाला का रूप ले रही थी, तब पाकिस्तानी फौज ने स्कूलों और विश्वविद्यालयों पर धावा बोला था। शिक्षकों की चुन-चुनकर हत्याएं की थीं। रावलपिंडी के जनरलों ने हुक्म दे दिया था कि जिस व्यक्ति की जेब में क़लम और आंखों पर चश्मा हो, उसे गोली मार दी जाए। उसके बाद हजारों शिक्षकों का लहू बहाया गया था। बहुत बड़ी संख्या में स्कूलों-विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी भी मारे गए थे। उस दर्दनाक दौर का खामियाजा पाक के तत्कालीन हुक्मरान भुगत चुके हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा बांग्लादेशी शासक वर्ग ने उनसे कोई सबक नहीं लिया। 

ये लोग वही गुनाह कर रहे हैं, जो पूर्व में जुल्फिकार अली भुट्टो, याह्या खान, टिक्का खान और एएके नियाजी ने किया था। उन्होंने मोहम्मद यूनुस को आगे कर अपनी सुधारवादी छवि बनाने की कोशिश की है, लेकिन पीछे काम वही कर रहे हैं, जो पाकिस्तानी फौज ने किए थे। वे अपने अल्पसंख्यक भाइयों और बहनों की सुरक्षा करना तो दूर, उनकी ज़िंदगी का सहारा भी छीन रहे हैं। 

इस अवधि में अल्पसंख्यकों के घरों और प्रतिष्ठानों पर हमले भी हुए। उनमें लूटमार की गई, आग लगाई गई। बहू-बेटियों की गरिमा को ठेस पहुंचाई गई। क्या मोहम्मद यूनुस और उनकी मंडली ऐसा ही बांग्लादेश बनाना चाहते हैं? वहां 'जो' हो रहा है, बहुत गलत हो रहा है। इतिहास बांग्लादेश के कर्ताधर्ताओं से तो प्रश्न पूछेगा ही, उन लोगों को भी क्षमा नहीं करेगा, जो 'सबकुछ' देखकर मौन रह गए थे।  

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