बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वहन करे समाज
बच्चों का मन बेहद कोमल और सरल होता है
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योगेश कुमार गोयल
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गहन चिंतन का विषय है कि हम और हमारा समाज भी बच्चों के प्रति सही तरीके से अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं| बच्चों का मन बेहद कोमल और सरल होता है, जो प्रायः निस्वार्थ भाव से किसी की भी मदद करने को तैयार रहते हैं| हालांकि बच्चों को हम बचपन से ही ऐसी सीख देने का भरसक प्रयास करते हैं कि वे जीवन में एक अच्छे इंसान बनें लेकिन कई बार हम स्वयं ही अपनी कार्यशैली से उनके समक्ष अच्छा आदर्श स्थापित करने में विफल रहते हैं| वास्तविकता यही है कि बड़ों के मुकाबले बच्चों का मन इतना कोमल होता है कि वे किसी भी बात का दिल से बुरा नहीं मानते और कई मामलों में तो कुछ बच्चे ही अपने कारनामों से बड़ों को भी जीवन में बहुत कुछ सीखा जाते हैं| सही मायनों में हम बच्चों से ईमानदारी, छोटी-छोटी बातों में खुशियां ढूंढ़ना, किसी का दिल नहीं दुखाना, दिल में कोई खोट न रखकर दिल खोलकर हंसना, निस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद करना, लग्न और मेहनत से जीवन में बड़े से बड़ा मुकाम हासिल करना जैसी बातें सीख सकते हैं| व्यस्कों को जहां प्रसन्न रहने के लिए किसी कारण की आवश्यकता होती है, वहीं बच्चों को दुखी होने के लिए एक कारण की जरूरत होती है लेकिन चिंता की बात यही है कि अब समाज बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन सही प्रकार से नहीं कर पा रहा है|
जहां तक बच्चों के प्रति समाज की जिम्मेदारियों की बात है तो बाल साहित्य का मामला हो या बाल फिल्मों का, बच्चे सदैव ही उपेक्षित रहे हैं| प्रेम कहानियों और भूत-प्रेतों पर आधारित फिल्मों की तो हमारे यहां भरमार रहती है लेकिन कोई भी फिल्मकार अपने देश की बगिया के इन महकते फूलों की सुध लेना जरूरी नहीं समझता| जहां ‘होम अलोन’, ‘चिकन रन’ और ‘हैरी पॉटर’ जैसी विदेशी बाल फिल्में विदेशों के साथ-साथ भारतीय बच्चों द्वारा भी बहुत पसंद की जाती रही हैं, वहीं हमारे यहां ऐसी फिल्मों का सर्वथा अभाव रहता है, जिनसे बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन हो और उन्हें एक नई प्रेरणा एवं सही दिशा मिल सके| प्रेमकथा पर आधारित या हिंसा और अश्लीलता से भरपूर फिल्में बनाकर मोटा मुनाफा कमा लेने की प्रवृत्ति ने ही अधिकांश फिल्मकारों को बाल फिल्में बनाने की दिशा में निरूत्साहित किया है| बाल साहित्य के मामले में भी कुछ ऐसा ही हाल है| बच्चों के मानसिक और व्यक्तित्व विकास में बाल साहित्य की बहुत अहम भूमिका होती है| बच्चों में आज नैतिक मूल्यों का जो अभाव देखा जा रहा है, उस अभाव को प्रेरणादायक बाल साहित्य के जरिये आसानी से भरा जा सकता है किन्तु यदि कोई बच्चा आज स्कूली किताबों से अलग कुछ अच्छा साहित्य पढ़ना भी चाहे तो उसे समझ नहीं आता कि वह पढ़े तो क्या पढ़े क्योंकि बच्चों के लिए सार्थक, सकारात्मक और प्रेरक साहित्य की कमी अब बहुत अखरने लगी है|
स्तरीय बाल साहित्य की कमी के भयावह दुष्परिणाम बच्चों में बड़ों के प्रति सम्मान की कम होती भावना और हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ते जाने के रूप में हमारे सामने आने भी लगे हैं| छोटे पर्दे पर प्रसारित हो रहे कार्टून चैनलों की बात करें तो अधिकांश कार्टून चैनल की कहानियां ऐसी होती हैं, जिनसे बच्चों को कोई अच्छी सीख मिलने के बजाय उनमें आक्रामकता की भावना ही विकसित होती है| मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मारधाड़ वाली फिल्मों और विभिन्न टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों के साथ-साथ ऐसे कार्टून नेटवर्क भी बच्चों में आक्रामकता बढ़ाने में ही अहम भूमिका निभा रहे हैं| इसके अलावा माता-पिता के बीच आए दिन होने वाले झगड़े भी बच्चों का स्वभाव उद्दंड एवं आक्रामक बनाने के लिए खासतौर से जिम्मेदार होते हैं| छोटी उम्र में ही बच्चों पर किताबों का बोझ भी अब इस कदर बढ़ गया है कि उन्हें अब पहले की भांति खेलने-कूदने के लिए भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाता और भारी-भरकम स्कूली बस्तों के बोझ तले मासूम बचपन की मुस्कान दब रही है| आज के बच्चे ही कल के भारत का निर्माण करेंगे और हम जितने बेहतर तरीके से उनकी देखभाल करेंगे, राष्ट्र निर्माण भी उतना ही बेहतर होगा, इसलिए यह समाज का बहुत बड़ा दायित्व है कि वह बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का सही तरीके से निर्वहन करे|