कौन जिम्मेदार?
कौन जानता था कि अस्पताल में ज़िंदगी की जगह मौत मिलेगी!
हमारी व्यवस्थाओं में इतनी सुस्ती क्यों है?
उत्तर प्रदेश के झांसी में महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज के बच्चों के वार्ड में आग लगने से 10 शिशुओं की मौत और 16 शिशुओं का झुलसना अत्यंत दु:खद है। क्या चिकित्सा के इतने बड़े संस्थान में आग पर काबू पाने के लिए कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं थी? अगर थी तो यह सब कैसे हुआ? जिन लोगों ने इस हादसे में अपनों को खो दिया, उन्हें इसका ज़िंदगीभर दु:ख रहेगा। इसका जिम्मेदार कौन है? क्या देश के अन्य अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में ऐसे हादसों को रोकने के लिए पर्याप्त इंतजाम हैं? यह इस किस्म का पहला हादसा नहीं है। देश में हर साल आग लगने की विभिन्न घटनाओं में बहुत लोग जान गंवा देते हैं। सोशल मीडिया पर उनके वीडियो वायरल होते हैं। मीडिया इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाता है, व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। सरकारें 'किसी को बख्शा नहीं जाएगा' जैसे बयान देकर दो-चार अधिकारियों-कर्मचारियों को कुछ समय के लिए निलंबित कर देती हैं। विपक्ष सत्ता पक्ष को कोसता है। यह अलग बात है कि जब वह खुद सत्ता में होता है तो भी ऐसे हादसे होते हैं, लोगों की जानें जाती हैं। बस, आम आदमी पिस रहा है। उसे इन्साफ कहां से मिले? जिन परिवारों के बच्चे महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज में भर्ती थे, वे तो उन्हें सकुशल घर लेकर जाना चाहते थे। हर परिवार यही चाहता है। कौन जानता था कि अस्पताल में ज़िंदगी की जगह मौत मिलेगी! प्राय: सरकारी मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों पर कुप्रबंधन एवं लापरवाही के आरोप लगते रहते हैं। ऐसे ज्यादातर संस्थानों में इलाज कराने कौन जाता है? आम आदमी; बड़े-बड़े महंगे प्राइवेट अस्पतालों का बिल भरने की तो उसकी हैसियत नहीं! तो उसके लिए व्यवस्था कौन सुधारे?
महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज बुंदेलखंड क्षेत्र में सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों में से एक है। कम-से-कम यहां तो अफसरों को विभिन्न हादसों के पहलू को लेकर सतर्क रहना चाहिए था। हादसे सूचना देकर नहीं आते। उन्हें रोकने के लिए पहले से तैयारी करनी होती है। व्यावसायिक / रिहायशी इमारतों में भी अग्निशमन से जुड़ी व्यवस्था की ओर खास ध्यान नहीं दिया जाता। जब कभी अखबार में खबर छपती है और उसे पढ़कर कोई व्यक्ति सुझाव देता है कि 'हमें भी एक अग्निशमन यंत्र ले लेना चाहिए', तो उसे हतोत्साहित करने वाले लोग यह तर्क देकर चुप कराने की कोशिश करते दिख जाएंगे कि 'अरे! यहां थोड़े ही आग लगी है ... हमारे यहां तो अब तक ऐसा कुछ हुआ नहीं ... इसकी क्या जरूरत है ... क्यों फालतू में पैसे खर्च करें ... कोई फायदा नहीं, यह यंत्र वर्षों काम नहीं आएगा ... अरे! यह तो यूं ही पड़ा-पड़ा धूल फांकता रहेगा!' अगर कहीं लगा भी लिया तो यह देखने की 'ज़हमत' करने वाले बहुत कम होंगे कि यंत्र कितना पुराना हो गया ... यह काम भी करता है या नहीं ... इसे बनाने वाली कंपनी से कितनी बार संपर्क किया ... अगर जरूरत पड़ने पर इसमें खराबी आ गई तो वैकल्पिक व्यवस्था क्या हो सकती है? हमारी व्यवस्थाओं में इतनी सुस्ती, इतनी लापरवाही, इतनी अदूरदर्शिता, इतनी निष्क्रियता क्यों है? जब किसी अस्पताल, कॉलेज, स्कूल आदि की इमारत का उद्घाटन करवाना हो तो नेता और अफसर फीता काटते हुए तस्वीरें खिंचवाते हैं, बड़े-बड़े भाषण देते हैं। उस दौरान उन्हें सबसे पहले यह सवाल पूछना चाहिए कि यहां लोगों की सुरक्षा के लिए क्या प्रबंध किए गए हैं और वे पर्याप्त हैं या नहीं? नेता और अफसर उपलब्धियों का श्रेय लेते हैं। उन्हें ऐसे हादसों की जिम्मेदारी भी लेनी होगी। अस्पतालों, सार्वजनिक महत्त्व की इमारतों के नाम महान विभूतियों के नाम पर रख देना ही काफी नहीं है। वे लोग, भारतवासियों को सुरक्षित भविष्य देना चाहते थे। इसके लिए भी कुछ करें।