यह कैसा शांतिकाल?
पाकिस्तान भलीभांति समझ चुका है कि वह आमने-सामने की लड़ाई में नहीं जीत सकता
यह संदेश देना होगा कि भारत को नुकसान पहुंचाकर कोई व्यक्ति कहीं भी सुरक्षित नहीं रह सकता
जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में गंभीर रूप से घायल होने के बाद एक अधिकारी समेत सेना के चार जवानों का शहीद होना देश के लिए बहुत बड़ा नुकसान है। भारत माता के ये सपूत फर्ज की राह में कुर्बान हो गए, लेकिन अब 'गुनहगारों' को सख्त सज़ा देने के साथ ऐसी रणनीति पर काम करना होगा, जिससे आतंकवादी हमलों का सिलसिला खत्म हो। अगर हमें सरहद पार बैठे आतंकवादियों के आकाओं के मंसूबों को समझना है तो पिछले एक साल में हुए ऐसे हमलों पर गौर करना होगा। कभी हमले में एक जवान घायल हुआ या शहीद हो गया। कभी हमले की तीव्रता ज्यादा हुई तो संख्या दो से तीन तक पहुंच गई। उसके बाद फिर तीव्रता बढ़ाई गई तो हमारे लगभग आधा दर्जन जवान शहीद हो गए। हमें इस मंसूबे के पीछे छिपी साजिश को समझना बहुत जरूरी है। भारत से कई युद्धों में मात खाने के बाद पाकिस्तान भलीभांति समझ चुका है कि वह आमने-सामने की लड़ाई में नहीं जीत सकता। वह भाड़े के आतंकवादियों को आगे कर हमले कर रहा है, जो 'ब्लीड इंडिया विद ए थाउजैंड कट्स' साजिश का हिस्सा है। इसके तहत पाकिस्तान चाहता है कि भारत पर थोड़े-थोड़े अंतराल में छोटे-छोटे हमले किए जाएं, जिनमें जान-माल का नुकसान होता रहे। वह जानता है कि अगर उसने उरी या पुलवामा जैसे हमले का दुस्साहस किया तो तुरंत जवाब आएगा, वह भी भरपूर ताकत के साथ! इसलिए तुलनात्मक रूप से 'छोटे' हमले कर रहा है। यह कहने को तो शांतिकाल है, लेकिन हमारे वीर जवानों के शहीद होने का सिलसिला जारी है! तो फिर कैसी शांति और कैसा शांतिकाल? इसका सीधा-सा मतलब यह है कि पाकिस्तान ने लड़ाई का तरीका बदल दिया है, जिससे दुनिया को यह भ्रम है कि भारत के साथ उसके संबंध कुछ शांतिपूर्ण हैं, एलओसी पर सैनिक एक-दूसरे पर गोलाबारी नहीं कर रहे हैं, जबकि भारतीय जवान शहीद होते जा रहे हैं।
बेशक किसी इन्सान की जान को धन से नहीं आंका जा सकता। जिस परिवार का कोई सदस्य दुनिया से चला गया, उसकी भरपाई रुपए और जायदाद से नहीं की जा सकती। हमें यह भी समझना होगा कि जब सेना एक जवान को तैयार करती है तो उस पर कितनी मेहनत करनी होती है! इसमें देश का समय, श्रम, संसाधन और कौशल लगता है। जब कोई जवान वर्दी पहनकर, हाथ में बंदूक लिए अपनी ड्यूटी पर जाता है, तो उसके पीछे उसकी वर्षों की मेहनत तो होती ही है; देश का समय, श्रम, संसाधन और कौशल भी होता है। अगर एक जवान भी शहीद हो जाता है तो देश बहुत कुछ गंवा देता है। वहीं, एक नफरती विचारधारा का गुलाम और चंद नोटों के लिए अपना ईमान बेच चुका सिरफिरा आतंकवादी किसी मुठभेड़ में मरता है तो उसके आकाओं को कोई खास नुकसान नहीं होता है। उनके पास ब्रेनवॉश किए गए लोग पहले से तैयार होते हैं। वे किसी आतंकवादी को इसलिए नहीं भेजते, ताकि वह सही-सलामत लौटकर आए। वे उसे भेजते ही इसलिए हैं, ताकि वह किसी गोली का निशाना बन जाए। उसका खात्मा होने के बाद परिजन को न तो कोई पेंशन देनी होती है, न अन्य परिलाभ का कोई प्रावधान होता है। यह तो उनके लिए बहुत सस्ता सौदा होता है। बेशक आतंकवादियों का खात्मा होना चाहिए, लेकिन इसी से शांति कायम होने वाली नहीं है। लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिज्बुल मुजाहिदीन जैसे संगठन महज मुखौटा हैं। उनके पीछे पाकिस्तान की फौज और आईएसआई हैं। जब तक एलओसी पार पाकिस्तानी फौज की पोस्ट नहीं उड़ाई जाएंगी, उसके जवानों पर सीधे प्रहार नहीं किया जाएगा, आतंकवादी हमले होते रहेंगे। अब भारत को सख्ती दिखानी होगी। आतंकवादियों का संहार करना ही है। उसके साथ 'असल गुनहगारों' को भी सबक सिखाना है। यह संदेश देना होगा कि भारत को नुकसान पहुंचाकर कोई व्यक्ति कहीं भी सुरक्षित नहीं रह सकता।