शब्दों का सरलीकरण

उच्च शिक्षा में हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं को भी स्थान मिलना चाहिए

शब्दों का सरलीकरण

हमारी भाषाओं का सम्मान हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?

राजस्थान के पुलिस विभाग में कामकाज के दौरान इस्तेमाल होने वाले अरबी-फारसी के कई कठिन शब्दों के स्थान पर हिंदी के आसान शब्दों के प्रयोग का निर्णय प्रशंसनीय है। पुलिस की जिम्मेदारी होती है कि वह राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखे, अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करे और आम जनता का विश्वास बरकरार रखे। जनता को अधिकार है कि वह पुलिस के कामकाज से जुड़े शब्दों के बारे में जाने। इससे जनता और पुलिस के बीच विश्वास को मजबूत करने में मदद मिलेगी। नियम-कानून आम जनता की भाषा में होने चाहिएं। इससे जनता के लिए उन्हें समझना और अपने जीवन में उन पर अमल करना आसान होता है। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि ‘आज जिसे आसान हिंदी या आम लोगों की हिंदी कहा जाता है, उसमें अरबी-फारसी के कई शब्द शामिल हैं ...अगर उन्हें पूरी तरह हटा देंगे तो जो भाषा पीछे बचेगी, उसे आम आदमी समझ ही नहीं पाएगा।’ वास्तव में न तो ऐसे सभी शब्दों को हटाने की जरूरत है और न किसी भाषा का विरोध करने की जरूरत है। हिंदी का यह खास गुण है कि इसने अरबी, फारसी, तुर्की समेत कई भाषाओं के शब्दों को समाहित कर लिया है। इससे यह भाषा समृद्ध हुई है। जो शब्द आम लोग आसानी से समझ जाते हों, वे किसी भी भाषा के हों, उन्हें हटाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ उन्हें हटाना चाहिए, जो बहुत कठिन हैं।

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उदाहरण के लिए, तीन शब्द हैं- ‘मुल्ज़िम’, ‘मुजरिम’ और ‘मुलाज़िम’। बहुत लोग इन्हें आसानी से नहीं समझ सकते। अगर इनके स्थान पर क्रमशः ‘आरोपी’, ‘अपराधी’ और ‘नौकर/कर्मचारी’ लिखा जाए तो समझने में आसानी होती है। इसी तरह एक और शब्द है- ‘इत्तिला’, जिसका अर्थ- ‘सूचना/जानकारी’ होता है। अगर आम लोग ‘सूचना’ शब्द से भलीभांति परिचित हैं तो ‘इत्तिला’ लिखने की क्या ज़रूरत है? जब लोग ‘मुसद्दिक़’ शब्द सुनेंगे/पढ़ेंगे तो इसका अर्थ जानने के लिए उन्हें शब्दकोश की मदद लेनी पड़ सकती है। अगर इसे ‘प्रमाणित करने वाला’ लिखा / बोला जाए तो हर कोई इसका अर्थ आसानी से समझ जाएगा। पुलिस के कामकाज से जुड़ी शब्दावली में ऐसे शब्दों की भरमार है। एक और शब्द है- ‘मुस्तग़ीस’। इसके ये अर्थ होते हैं- ‘फ़ौजदारी में दावा दायर करनेवाला, दावेदार, मुद्दई, अभियोक्ता, फ़रियादी, वह जो किसी पर या किसी प्रकार का इस्तिग़ासा या अभियोग उपस्थित करे।’ अगर इसे ‘शिकायतकर्ता’ लिखा / बोला जाए तो सबके लिए समझना बहुत आसान होगा। पुलिस की शब्दावली में ‘इल्ज़ाम’ शब्द भी बहुत आता है। इसे ज़्यादातर लोग समझ जाते हैं। हालांकि ‘आरोप’ शब्द और भी आसान है। उर्दू में ‘फ़र्द’ शब्द बहुत सुनने को मिलता है। यह शब्द अरबी और फ़ारसी, दोनों में है और दोनों के ही अर्थ अलग-अलग होते हैं। अरबी शब्द का अर्थ है- ‘एक व्यक्ति, एक शख्स, अकेला’। वहीं, फ़ारसी शब्द का अर्थ है- ‘हिसाब का रजिस्टर, हुक्मनामा’। आम व्यक्ति इसे पढ़ेगा / सुनेगा तो बहुत भ्रमित होगा, इसलिए ‘फ़र्द’ के बजाय ऐसा शब्द लिखना चाहिए, जिसे हर कोई समझ सके। विभिन्न विभागों के कामकाज से जुड़े ऐसे शब्द, जिन्हें आम जनता को भी जानना चाहिए, की जगह हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। आज़ादी के इतने दशकों बाद भी हम अपनी भाषाओं को वह स्थान नहीं दे पाए, जो इन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। आज जब चिकित्सा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में कराने की मांग होती है तो ‘बुद्धिजीवियों’ का एक वर्ग तुरंत विरोध में खड़ा हो जाता है। उनका मानना है कि उच्च शिक्षा सिर्फ अंग्रेजी में दी जा सकती है। बेशक अंग्रेजी एक समृद्ध भाषा है। इसका ज्ञान होना चाहिए, लेकिन उच्च शिक्षा में हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं को भी स्थान मिलना चाहिए। इसके बाद विद्यार्थियों पर छोड़ दें। वे जिस माध्यम को चाहें, उसे चुनें। जर्मनी, इटली, इजराइल, जापान, रूस, चीन, द. कोरिया समेत कई देश उच्च शिक्षा से जुड़े सभी पाठ्यक्रम अपनी भाषाओं में चलाते हैं। हमें भी ऐसा करना चाहिए। हमारी भाषाओं का सम्मान हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?

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