‘एक देश एक चुनाव’ अमृतकाल की अमृत उपलब्धि बने
सरकार इतनी भी कमजोर नहीं है कि अपने चुनावी वायदों को लागू न कर सके
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ललित गर्ग
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भले ही स्पष्ट बहुमत के अभाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग की तीसरी पारी में बदलावकारी फैसले लेना उतना सहज नहीं रह गया है, जितना पहली-दूसरी पारी में नजर आता था| लेकिन भाजपा की सरकार इतनी भी कमजोर नहीं है कि अपने चुनावी वायदों एवं विकासमूलक कार्ययोजनाओं को लागू न कर सके| नरेन्द्र मोदी जैसा साहसी एवं करिश्माई नेतृत्व है तो उसके द्वारा देशहित की योजनाओं में आने वाले अवरोध वह दूर कर ही लेंगे| एक दशक की विकासमूलक कार्यशैली के बाद अब भी भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर अपनी योजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने में जुटी है| भले ही भाजपा-सरकार कई मुद्दों पर यू टर्न लेते हुए भी नजर आई| बहरहाल, लोकसभा में पहले के मुकाबले कमजोर स्थिति होने के बावजूद खुद को साहसिक निर्णय लेने वाली पार्टी के रूप में एक बार फिर अपने एक मुख्य एजेंडे एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को आकार देने के लिये तत्पर हो गयी है| इसके लिए सरकार ने पक्ष-विपक्ष के सभी नेताओं से एक साथ आने का अनुरोध किया था| निस्संदेह, एक राष्ट्र, एक चुनाव के लिये भाजपा द्वारा नई पहल किए जाने के निहितार्थ राजनीति से ज्यादा राष्ट्रहित में है|
निश्चिय ही ‘एक देश एक चुनाव’ की योजना को लागू करना राजग के लिये बड़ी चुनौती होगी क्योंकि इस बार विपक्ष पहले के मुकाबले मजबूत भी है और एकजुट भी है| इसमें दो राय नहीं कि यह बात तार्किक है कि एक राष्ट्र, एक चुनाव का प्रयास शासन में सुनिश्चितता लाएगा| वहीं बार-बार के चुनाव खर्चीले होते हैं| दूसरे राज्य-दर-राज्य लंबी आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य भी बाधित होते हैं| साथ ही साथ शासन-प्रशासन व सुरक्षा बलों की ऊर्जा के क्षय के अलावा जनशक्ति का अनावश्यक व्यय होता है| विगत लोकसभा चुनावों में कुल सरकारी खर्च 6600 करोड़ रुपये आया था जो भारत जैसे विविधतापूर्ण विशाल देश को देखते हुए भले ही जायज कहा जाये, लेकिन बार-बार होने वाले चुनावों से होने वाले ऐसे भारी-भरकम खर्चे देश की अर्थ-व्यवस्था पर बोझ तो डालते ही है| भारत में भ्रष्टाचार की जड़ भी महंगी होती चुनाव व्यवस्था है क्योंकि जब करोड़ों रुपये खर्च करके कोई विधानसभा या लोकसभा का प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनेगा तो वह विजयी होने के बाद सबसे पहले अपने भारी खर्च की भरपाई करने की कोशिश करेगा| अतः असल में बात सम्पूर्ण चुनावी व्यवस्था के सुधार की होनी चाहिए| मगर इसकी बात करने पर सभी राजनैतिक दलों में एक सन्नाटा पसर जाता है| लेकिन पक्ष एवं विपक्ष को अपने राजनीतिक हितों की बजाय देशहित को सामने रखकर इस मुद्दे पर आम सहमति बनानी चाहिए| पारदर्शी व निष्पक्ष चुनाव के लिये एक साथ चुनावी मशीनरी तथा सुरक्षा बलों की उपलब्धता के यक्ष प्रश्न को भी सामने रखकर इस पर सकारात्मक रूख अपनाना चाहिए और इसके सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए|
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित एक उच्च स्तरीय समिति ने इस साल मार्च में पहले कदम के रूप में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की| समिति ने राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय राजनीतिक दलों के साथ परामर्श किया और संभावित अनुशंसाओं के साथ आम लोगो एवं न्यायविदों के विचार आमंत्रित किये| समिति ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव के 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय चुनाव कराए जाने की भी सिफारिश की| इसके अलावा, विधि आयोग भी 2029 से एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश कर सकता है| असल में बात सम्पूर्ण चुनावी व्यवस्था के सुधार की होनी चाहिए| मगर इसकी बात करते हुए सभी राजनैतिक दलों के सामने निजी हित एवं चुनाव जीतने का गणित सामने आ जाता है| भारत की असली विडम्बना यही है| जब भी सरकारी खर्चे से चुनाव कराने की बात होती है तो इस राह को अव्यावहारिक बता दिया जाता है| जबकि जर्मनी जैसे लोकतन्त्र में यह प्रणाली सफलतापूर्वक काम कर रही है| दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों के चुनाव एक साथ प्रत्येक पॉंच वर्ष पर आयोजित किये जाते हैं, जबकि नगर निकाय चुनाव प्रत्येक दो वर्ष पर आयोजित किये जाते हैं| स्वीडन में राष्ट्रीय विधानमंडल, प्रांतीय विधानमंडल/काउंटी कौंसिल और स्थानीय निकायों/नगर निकाय सभाओं के चुनाव एक निश्चित तिथि, यानी हर चौथे वर्ष सितंबर के दूसरे रविवार को आयोजित किये जाते हैं| ब्रिटेन में ब्रिटिश संसद और उसके कार्यकाल को स्थिरता एवं पूर्वानुमेयता की भावना प्रदान करने के लिये निश्चित अवधि संसद अधिनियम, 2011 पारित किया गया था| इसमें प्रावधान किया गया कि प्रथम चुनाव % मई 2015 को और उसके बाद हर पॉंचवें वर्ष मई माह के पहले गुरुवार को आयोजित किया जाएगा|
जब दुनिया के अनेक देशों में ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की परम्परा सफलतापूर्वक संचालित हो रही है तो भारत में इसे लागू करने में इतने किन्तु-परन्तु क्यों है? देश में इसे लागू करने से सरकार कुछ-कुछ समय बाद चुनावी मोड में रहने के बजाय शासन यानी विकास योजना पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकती है| इससे समय एवं संसाधनों की भी बचत होगी| एक साथ चुनाव कराने से मतदान प्रतिशत भी बढ़ेगा, क्योंकि लोगों के लिए एक साथ कई मत डालना आसान हो जाएगा| इन सब स्थितियों के साथ-साथ एक साथ चुनाव कराये जाने पर क्षेत्रीय पार्टियों को होने वाले नुकसान एवं अन्य स्थितियों पर भी ध्यान देना होगा| क्योंकि एक आदर्श एवं सशक्त लोकतंत्र में सभी राजनीतिक दलों के लिये समान अवसर उपलब्ध होना भी जरूरी है|