वचनबद्धता भी दिखाए चीन
चीन समझ चुका है कि दबाव बनाने की रणनीति से कोई फायदा नहीं हो रहा
विश्वास बहाली का दायित्व सिर्फ भारत पर न आए
भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में गतिरोध समाप्त करने संबंधी समझौता एक अच्छी पहल है। दोनों देशों, जो अपने समृद्ध मानव संसाधन, क्षेत्रफल और आर्थिक विकास को लेकर दुनिया में विशेष स्थान रखते हैं, को हर क्षेत्र में ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे परस्पर विश्वास के वातावरण का निर्माण हो और सहयोग बढ़े।
भारत ने तो सदैव अपने वचन का पालन किया है। अब चीन को भी वैसी वचनबद्धता दिखानी होगी। भारतीय सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर गश्त को लेकर चीन के साथ समझौता होने की भारत की घोषणा के बाद स्पष्ट कर दिया है कि 'हम विश्वास बहाली के प्रयास कर रहे हैं।'बेशक इसे हासिल करने के लिए दोनों पक्षों को ‘एक-दूसरे को आश्वस्त’ करना होगा। ऐसा नहीं होना चाहिए कि विश्वास बहाली का दायित्व सिर्फ भारत उठाए। इस मामले में चीन का रिकॉर्ड बहुत ही दागदार रहा है। समझौतों को तोड़ना उसकी पुरानी आदत है, इसलिए भारत को बहुत सजग रहना होगा। जून 2020 में जब गलवान घाटी में भीषण झड़प हुई तो उसके पीछे चीन की यह मंशा थी कि इससे भारत पर दबाव बनेगा, भारतीय सैनिकों का एलएसी की ओर आना कम होगा।
हालांकि चीन का वह दांव उल्टा पड़ा था। भारतीय सैनिकों ने उस भिड़ंत में पीएलए के कई जवानों को न केवल धराशायी किया, बल्कि अन्य इलाकों में भी जब आमना-सामना हुआ तो चीनी फौजियों की अच्छी-खासी 'आवभगत' की थी! ऐसे कई वीडियो सामने आ चुके हैं, जिनमें भारतीय सैनिक बहुत आक्रामक अंदाज में चीनियों को ललकारते नजर आए थे।
चीन ने एलएसी पर जवानों की तादाद बढ़ाई तो भारत ने भी अपने सैनिकों को लाकर तैनात कर दिया था। वहीं, बीजिंग की ओर से उकसावे की किसी भी कार्रवाई, चाहे वह नत्थी वीजे का मामला हो या अरुणाचल प्रदेश के कई स्थानों के नामकरण का मुद्दा हो, को भारत सरकार ने बहुत सूझबूझ से संभाला था।
अब चीन समझ चुका है कि भारत पर दबाव बनाने की इस रणनीति से कोई फायदा नहीं हो रहा है। उसने जिस तरह एलएसी पर अपने जवान भेजे, उसी अनुपात में उनके लिए सुविधाओं का इंतजाम करना पड़ा। कई रिपोर्टों में यह दावा किया जा चुका है कि चीनी फौजी इतनी ऊंचाई पर तैनात रहने के अभ्यस्त नहीं हैं। उन्हें सांस लेने में दिक्कत समेत कई समस्याएं सताने लगती हैं।
'एक संतान नीति' के कारण चीनी सरकार पर पहले ही काफी दबाव है। गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के हाथों पीएलए के जो फौजी ढेर हुए थे, चीन ने आज तक उनका सही आंकड़ा नहीं बताया है। उसने सिर्फ चार लोगों के मारे जाने का दावा किया था, वह भी घटना के कई महीने बाद! हालांकि कई रिपोर्टों में असल आंकड़ा इससे कम से कम 10 गुणा ज्यादा होने का दावा किया गया है।
कोरोना महामारी के दौरान जिस तरह चीन में हालात बिगड़े, लोगों में आक्रोश फैला, उससे राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर काफी दबाव है। वे चाहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी और देश पर उनकी पकड़ मजबूत हो। चीन में अभी रोजगार की स्थिति अच्छी नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कड़े प्रतिबंधों और दावे के मुताबिक आर्थिक विकास न कर पाने से कभी भी बड़े स्तर पर जनता का आक्रोश फूटने की आशंका बनी हुई है।
शी जिनपिंग भलीभांति जानते हैं कि चीनी नागरिक ऐसे माहौल में यह बिल्कुल स्वीकार नहीं करेंगे कि एलएसी पर कोई भीषण झड़प हो, जिसके बाद उनकी इकलौती संतानों के शव आएं। आम चीनी के मन में भारतविरोध की वैसी भावना भी नहीं है, जैसी पाकिस्तानियों में दिखाई देती है। चीन के साथ भारत का कोई सांस्कृतिक विवाद नहीं है।
अतीत में भारत-चीन मैत्री के कई सुनहरे अध्याय रहे हैं। बाद में जो टकराव पैदा हुआ, वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के लालच और धोखे का नतीजा था। चीन इस तथ्य से परिचित है कि अगर उसे दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना है तो भारत के साथ टकराव को टालना ही होगा। हमें भी इस बात को लेकर सावधान रहना होगा कि समझौते के नाम पर चीन भविष्य में धोखे का कोई नया जाल न बुन ले।