शाहनवाज खान: नेताजी सुभाष का वह सिपाही जिसने भारत के लिए छोड़ा था पाकिस्तान
शाहनवाज खान: नेताजी सुभाष का वह सिपाही जिसने भारत के लिए छोड़ा था पाकिस्तान
नई दिल्ली/दक्षिण भारत। भारत माता की आजादी और इस आजादी की रक्षा के लिए अनेक योद्धाओं ने संघर्ष किया, बलिदान दिया। उनकी राह में कई रुकावटें और तकलीफें आईं लेकिन उन्होंने देश के सुनहरे भविष्य के लिए अपने वर्तमान को कुर्बान कर दिया। जनरल शाहनवाज खान देश के उन्हीं सपूतों में से एक थे। उनका नाम महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बेहद भरोसेमंद साथियों में शामिल किया जाता है।
शाहनवाज खान का जन्म रावलपिंडी के गांव मटौर (अब पाकिस्तान) में 24 जनवरी, 1914 को हुआ था। वे 1940 में सेना में भर्ती हुए। दूसरे महायुद्ध में बतौर कैप्टन वे लड़ाई में शामिल हुए। बाद में नेताजी सुभाष के विचारों से प्रभावित होकर आजाद हिंद फौज में भर्ती हो गए।जब नेताजी ने देश की आजादी के लिए युवाओं का आह्वान किया तो शाहनवाज बोले- ‘मैं हाजिर हूं’। उन्होंने आजाद हिंद फौज में नेताजी द्वारा दिए गए दायित्व निभाए और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने शाहनवाज पर मुकदमा चलाया। उसकी मंशा उन्हें फांसी देने की थी, लेकिन शाहनवाज इससे जरा भी विचलित नहीं हुए। उधर, देशभर में अंग्रेजों का विरोध तेज होता जा रहा था। इससे उन्हें शाहनवाज के लिए अपना इरादा बदलना पड़ा।
साल 1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ तो लाखों की तादाद में लोगों को अपना घर छोड़कर जाना पड़ा। चूंकि शाहनवाज का घर पाकिस्तान के इलाके में आता था। वहां उनका परिवार बहुत प्रभावशाली था। इसलिए पाकिस्तानी नेताओं ने उन्हें कई प्रलोभन दिए, लेकिन शाहनवाज ने उन सबको ठुकरा दिया और पाकिस्तान छोड़कर भारत आ गए।
जनरल शाहनवाज के रिश्तेदारों ने भी उन्हें वहीं रोकना चाहा। देश के बंटवारे के बाद बनीं तत्कालीन परिस्थितियों में भारत जाने को बहुत असुरक्षित बताया गया। साथ ही फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा, लेकिन शाहनवाज उस प्रतिज्ञा पर अडिग रहे जो उन्होंने नेताजी सुभाष से की थी- ‘हम आखिरी सांस तक देश की सेवा करेंगे’।
भारत आने के बाद शाहनवाज खान सामाजिक कार्यों में सकिय रहे। उन्होंने सुभाषगढ़ नामक गांव भी बसाया जो उत्तराखंड में स्थित है। उन्होंने मेरठ से चुनाव लड़ा और केंद्र में मंत्री बने। नेताजी सुभाष के इस सिपाही ने 9 दिसंबर, 1983 को आखिरी सांस ली और हिंदुस्तान की मिट्टी में समा गए।
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