आंकड़े शहादत के
आंकड़े शहादत के
सेना की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष २०१७ में कुल ९१ भारतीय सैनिकों की मौत हुई, जबकि पांच वर्ष पहले २०१२ में १७ जवानों की मौत हुई थी। उसके बाद ये आंक़डा लगातार ब़ढता गया है। रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी २००५ से दिसंबर २०१७ तक अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान की ओर से हुए युद्धविराम के उल्लंघन या आतंकवादी-विरोधी अभियानों में कुल १,६८४ जवानों की मौत हो गई। बीते १३ वर्षों में सबसे ज्यादा ३४२ मौतें वर्ष २००५ में हुई थीं। वर्ष २००६ में यह तादाद घट कर २२३ तक पहुंची। सबसे ज्यादा मौतें पाकिस्तान से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर हुई हैं। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में आंतकवाद-विरोधी अभियानों के दौरान भी कई अफसरों और जवानों की मौत हुई है। भारत और पाकिस्तान की सीमा और जम्मू-कश्मीर में दोनों देशों की नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर होने वाले युद्धविराम उल्लंघन और बिना किसी उकसावे के होने वाली फायरिंग सेना के जवानों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। वर्ष २००३ में दोनों देशों के बीच युद्धविराम समझौता हुआ था। हाल में सीमा पार से इसके उल्लंघन की घटनाएं लगातार ब़ढ रही हैं्। तो आखिर अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सेना की जवानों की मौत के ब़ढते मामलों पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है? विशेषज्ञों का कहना है कि युद्धविराम के उल्लंघन पर अंकुश लगाने का कोई तंत्र विकसित नहीं हो सका है। ऐसे में सीमा पर तैनात जवानों की सावधानी ही उनको बचा सकती है। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय सीमा पर और नियंत्रण रेखा पर जवानों की तैनाती का समय भी घटाया जाना चाहिए, ताकि उनको तनावमुक्त किया जा सके। अक्सर ऐसे माहौल में काम करने वाले कई जवान तनाव में या तो खुदकुशी कर लेते हैं या फिर अपने साथियों की हत्या कर देते हैं। अतः उन जवानों की छुट्टी का भी प्रावधान होना चाहिए्। बहरहाल, क़डवी हकीकत यह है कि कारगिल युद्ध के दौरान जितने जवान शहीद हुए, उससे कई गुना ज्यादा जवान उसके बाद शांति के दौर में अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं। भारत और पाकिस्तान की सीमा ३,३२३ किमी लंबी है। इसमें से २२१ किमी लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा और ७४० किमी लंबी नियंत्रण रेखा जम्मू-कश्मीर में है। युद्धविराम उल्लंघन की सबसे ज्यादा घटनाएं इसी राज्य में होती हैं। यहां सैनिकों के लिए काम करना मुश्किल ज्यादा है क्योंकि उन्हें स्थानीय स्तर पर किसी भी प्रकार का सहयोग नगारिकों से नहीं मिल पाता है। हालांकि राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भारत और पाकिस्तान कश्मीर को जंग का अखा़डा न बनाएं लेकिन राज्य के लोगों ने आतंकियों से भाईचारा और उनके प्रति सहानुभूति दिखानी बंद नहीं की तो हालात में बहुत अधिक बदलाव आना मुश्किल ही लगता है।