श्रेय न सही, उलाहना तो न दें
हर व्यक्ति ऐसा नहीं होता कि वह श्रेय पाने के लिए ही किसी की मदद करता है
* श्रीकांत पाराशर *
दक्षिण भारत राष्ट्रमत
देखिए, हर व्यक्ति ऐसा नहीं होता कि वह श्रेय पाने के लिए ही किसी की मदद करता है। हां, कुछ लोग चाहते भी होंगे कि उन्होंने कोई सहयोग किया तो उनको श्रय मिले, उनका नाम हो। यह कोई अचंभे वाली बात नहीं, मानव स्वभाववश ऐसा होता है। लेकिन बिना श्रेय की लालसा के भी मददगार आगे आते हैं। यह तो कोई नहीं चाहेगा कि वह किसी का सहयोग करे और बदले में उलाहना भी सुने। हां, कोई संत पुरुष तो यह भी बर्दास्त कर लेगा लेकिन सामान्य व्यक्ति कितना भी उदार होगा तो वह भी काम के बदले उलाहना नहीं सहेगा। उसके मन को पीड़ा होगी।
जीवन में आपका पाला भी ऐसे लोगों से कभी कभी पड़ता होगा और आप स्तब्ध रह जाते होंगे। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। कोरोना समस्या उस समय अपने शीर्ष पर थी। लोग किसी का फोन भी नहीं उठा रहे थे। बेंगलूरु में हमारे खांडल समाज के एक भाई का फोन मेरे पास आया। वैसे वह कभी मुझे होली दिवाली भी फोन नहीं करते। कभी सामने पड़ गए तो राम राम हो जाना अलग बात है। उन्होंने कहा, मेरे पूरे परिवार को कोरोना हो गया है, मेरे छोटे भाई को सांस लेने में दिक्कत हो रही है, हमने संबंधित सब सोर्स खंगाल लिए। न बेड मिल रहे हैं, न आक्सीजन और यहां तक कि एम्बुलेंस ही आ रही है। केवल दो लोगों को अस्पताल में जगह मिल जाए तो भी काफी मदद होगी। अगर अभी सहयोग नहीं मिला तो बचना भी मुश्किल है। मैंने 20 मिनट में उनके घर तक एम्बुलेंस भिजवाई। जैन समाज के एक कोरोना केयर सेंटर के माध्यम से उनके लिए बेड, आक्सीजन सहित जो आवश्यक था सब अरेंज करवाया। वे कुछ दिन में स्वस्थ होकर घर लौट आए। कुछ दिन बाद मैंने सोचा कि उनका तो फोन नहीं आया, मैं ही एक कर्टसी काल कर लूं कि कोई दिक्कत तो नहीं हुई? उनका जवाब जानकर आप भी सन्न रह जाएंगे। वे बोले..."श्रीकांतजी थे जो सहयोग करियो बो तो ठीक है परंतु यारो एक बात म्हारे हमेशा खटकैगी कि थे सब काम फोन पर ही कराया, खुद कोनी आया।" मतलब वे चाहते थे कि मैं अपनी जान को जोखिम में डालता तभी मेरा सामाजिक दायित्व पूरा होता। वह समय सब को पता है कि कैसा था। जब अपने परिजनों के पास फटकने से लोग डरते थे, उन हालात में मैं खुद जाकर उनको एम्बुलेंस में बिठाता, वे यह अपेक्षा कर रहे थे। बताइए कि धन्य हैं कि नहीं वे ? ऐसे लोग अपने आपको जब समाज का हितैषी बताते हैं तो आश्चर्य होता है। सब लोग ऐसे नहीं होते, परंतु होते तो हैं न ?
अच्छा, इस घटना का यहां जिक्र करने का फायदा क्या है? बिल्कुल है। हमारा नया वर्ष प्रारंभ हुआ है। हम अपने आप में ज्यादा बदलाव न ला सकें तो न सही, लेकिन ऐसी प्रवृत्ति के हल्के से भी लक्षण अपने अंदर पाएं तो अभी से संकल्प ले लें कि अगर समाज का कोई भाई हमारा किसी भी प्रकार का सहयोग करता है तो उसको कभी भी उलाहना न दें, उसकी कमी न निकालें। अगर आप श्रेय दे सकें तो आपकी महानता है लेकिन अगर इसमें कंजूसी करें तो भी उलाहना देने का हक कतई नहीं बनता। यों तो यह मामूली सी बात लगती है परंतु हम छोटी छोटी ऐसी अच्छी बातें अपने स्वभाव में शामिल करेंगे (यदि पहले से शामिल हैं तो ठीक है) तो हम अपने स्वभाव को ही परिष्कृत करेंगे, हम एक अच्छा इंसान बनेंगे। (अगर हम अच्छे इंसान हैं तो फिर कहना ही क्या)