मदद भले ही छोटी हो परंतु सेवा के नाम पर पाखंड अच्छा नहीं

मदद भले ही छोटी हो परंतु सेवा के नाम पर पाखंड अच्छा नहीं

मदद भले ही छोटी हो परंतु सेवा के नाम पर पाखंड अच्छा नहीं

'दक्षिण भारत राष्ट्रमत' में प्रकाशित आलेख।

श्रीकांत पाराशर
दक्षिण भारत राष्ट्रमत

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सेवा तो सेवा होती है, वह बड़ी या छोटी नहीं होती क्योंकि किसी जरूरतमंद की स्थिति कैसी है, उस पर बहुत कुछ निर्भर होता है। किसी व्यक्ति के लिए आपके द्वारा दी गई छोटी सी मदद बहुत बड़ी राहत पहुंचा सकती है इसलिए उसे छोटी मदद या छोटी सेवा नहीं कहा जा सकता। मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि सेवा छोटी हो या बड़ी, उसकी सराहना की जाए तो उससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलती है और लोग सेवाकार्यों में सहयोग के लिए आगे आते हैं। सेवा कार्यों का प्रचार मीडिया के माध्यम से होता है तो समाज में साख बनती है और सेवा करने वाले को यहां वहां चार लोगों के बीच खड़े होने पर सराहना मिलती है।

इसमें कोई बुराई नहीं है परंतु असंतुलित प्रचार होने से सेवा का रूप विकृत होने लगा है तथा कुछ लोग समाज में अपनी साख बनाने के लिए छिटपुट सेवा का ढोंग करने लगे हैं और छिटपुट मीडिया भी बढा चढा कर ऐसे काम को यों प्रस्तुत करता है जैसे धरती पर पहली बार किसी ने समाज सेवा की है। उदाहरण के तौर पर…..अभी कोरोना काल में मान लीजिए किसी ने 100-50 भोजन पैकेट बनाए और उनका वितरण किया तो वितरण करने वाले ने अलग अलग पोज लेकर पैकेट बांट दिए।

किसी मीडिया वाले ने हर एंगल से उनके 5-7 फोटो छाप दिए। चित्र में, पैकेट लेने वाले लोग भी अलग अलग एंगल से वही के वही दिखेंगे। इन 100-50 पैकेट के साथ भोजन पैकेट बांटने वाले भामाशाह के बाप-दादा का भी जिक्र किया जाएगा कि वे भी अपने समय के बड़े दानवीर थे। समाचार छपने के बाद अगले दिन वह सोशल मीडिया पर चलेगा और भोजन पैकेट बांटने वाले वे सज्जन बन जाएंगे समाजसेवी। क्या वास्तव में ऐसा करके कोई समाजसेवी बन सकता है?

बिल्कुल नहीं। यह केवल उनका भ्रम होता है। ऐसे कोई समाजसेवी नहीं बनता। और न ही कोई ऐसा मीडिया किसी को समाजसेवी बना सकता है। दरअसल, समाज में साख स्थापित होती है अपने व्यवहार से, फिर समय समय पर निरंतर कुछ न कुछ काम करते रहने से। लोगों के सुख दुख में सहभागी बनने से। सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने से, सक्रियता से भागीदारी निभाने से। हां, केवल सस्ती लोकप्रियता अस्थायी रूप से हासिल की जा सकती है। क्योंकि मीडिया भी अब कहां पहले जैसा जिम्मेदार रहा है?

आजकल के कुछ पत्रकार भी नकली समाजसेवियों से किसी न किसी बहाने छोटी छोटी आर्थिक मदद लेते रहते हैं और उन्हें यह ओब्लीगेशन का बोझ चापलूसी करके उतारना ही पड़ता है। इस उपकार का बदला चुकाने में वे चापलूसी की सारी हदें पार कर देते हैं और सब संतुलन ताक पर रख कर मामूली से सेवा कार्य को इतना बढाचढा कर लिखते हैं कि जिसने सेवा की है, उसमें खुद में थोड़ी सी भी शर्म बची हो तो वह भी शर्म से पानी पानी हो जाए क्योंकि उसे पता होता है कि उसने कौनसा गौरवपूर्ण सेवा कार्य किया है। लेकिन आजकल उनमें भी शर्म बची कहां है? लोग ढीठ हो गए हैं।

आपने सोशल मीडिया पर कई ऐसे फोटो देखे होंगे कि एक अस्पताल में रोगी को दो केले भेंट करते हुए 4-5 दानदाता फोटो खिंचवाते हैं और फिर फेसबुक तथा वाट्सएप में डालते हैं। इसी प्रकार एक निर्धन महिला को 100 रु. वाली शाल ओढाते हुए 7-8 लोग फोटो खिंचवाते हैं और कई दिन तक वाट्सएप पर चलाते हैं। पूरे परिवार के लिए मात्र 5-6 किलो कुल राशन वाले कुछ किट बांटने वाले दानदाता तो बहुत मिलेंगे, जो जल्दी से समाजसेवी बनना चाहते हैं।

क्या आप मानते हैं कि ऐसे फोटो देखकर इन दानदाताओं के प्रति लोगों के मन में सम्मान जगा होगा ? नहीं, लोग इन फोटो पर हंसते हैं, मजाक उड़ाते हैं। इन पर तंज कसते हैं। और इसका असर क्या हुआ? जो लोग सच में छोटा छोटा सेवाकार्य निस्वार्थ भाव से करते हैं उनको भी अब हिचक होने लगी है कि कहीं कोई मजाक तो नहीं उड़ाएगा?

मैं यह नहीं कहता हूं कि छोटे छोटे कार्य नहीं करने चाहिएं। अवश्य किए जाएं परंतु उसका प्रचार तो शोभाजनक होना चाहिए। काम के अनुपात में तो हो। आप एक कैन भरकर काढा 100-150 लोगों को पिला दें और आपका प्रचार कई फैटो के साथ ऐसा हो जैसे आपने बहुत सारे लोगों की जान बचा ली है, तो क्या आपकी आत्मा ऐसा प्रचार स्वीकार करेगी? क्या आप आज के युग में भी लोगों को बेवकूफ समझते हैं?

यह याद रखना चाहिए कि जो व्यक्ति सेवा भावना से किसी की मदद करता है, कोई सेवाकार्य करता है तो उसके काम का प्रचार उसके साथी करते हैं, उसकी संस्था करती है, प्रतिष्ठित मीडिया वाले भी काम के अनुरूप उसके काम का परिचय समाज से खुद रुचि लेकर करवाते हैं। अगर कोई पत्रकार अपने स्वयं के किसी लोभ के लिए किसी के सामान्य से काम को चापलूसी में बदल देगा और व्यर्थ की प्रशंसा के पुल बांधेगा तो वह उस काम करने वाले की हंसी ही उड़वाएगा। उसकी साख बनाने का काम वह नहीं करेगा। सामने भले ही कोई कुछ न कहे, पीछे से तो लोग हंसेंगे ही। लोंगटर्म में न तो ऐसे प्रचार करने वाले को लाभ मिलता है और न प्रचार पाने वाले को।

समाजसेवा के क्षेत्र में समाज में बड़े बड़े दानवीर भी हैं और कर्मठ, निष्ठावान सामाजिक कार्यकर्ता भी। कोई धन देता है तो कोई समय और श्रम का दान करता है। समाज के अच्छे अच्छे काम इन सबके आपसी समन्वय से संपन्न होते हैं। जो काम करता है उसका नाम होता है, और होना भी चाहिए क्योंकि इससे दूसरों को प्रेरणा मिलती है। प्रेरित होकर न जाने कितने लोग अच्छे अच्छे सेवाकार्य करते हैं। बरसों से बेंगलूरु में सेवाकार्यों का सिलसिला जारी है और सेवा का उपयुक्त सम्मान भी होता है। समाज और मीडिया में संतुलन से काम होता आया है। एक छोटे काम से संबंधित हम 10 फोटो छाप भी देंगे तो ऐसे छापने से वह काम कतई बड़ा नहीं हो सकता, समाज की नजरों में भी नहीं। इसलिए यह विवेक सब में होना चाहिए कि मीडिया किसी को बिना अच्छा काम किए केवल फोटो और झूठे गुणगान कर के समाजसेवी नहीं बना सकता।

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