बालमन की हिंसावृत्ति

'बच्चों का सम्पूर्ण मानसिक और शारीरिक विकास प्रकृति की गोद में ही संभव है'

बालमन की हिंसावृत्ति

Photo: PixaBay

दिनेश प्रताप सिंह ‘चित्रेश’  
मोबाइल : 7379100261

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पिछले दिनों बिहार के सुपौल से एक दहकती हुई खबर आयी-’बैग में पिस्तौल लेकर स्कूल पहुंचा नर्सरी का बच्चा, तीसरी के छात्र पर चलाई गोली|’ कानपुर के बिधनू थाना क्षेत्र की गंगापुर कालोनी की कुछ दिन पहले की खबर है, यहॉं प्रयाग विद्या मन्दिर में 10वीं के छात्र ने कक्षा में सहपाठी की चाकू से गोदकर हत्या कर दी थी| हम ऐसे समाचारों से खासे बेचैन हो जाते हैं, जहां बच्चे या किशोर किसी हिंसा अथवा गंभीर अपराध की दिशा में अग्रसर होते दिखते हैं| मन में स्वाभाविक सवाल उठता है कि जिस बालमन में रंग-बिरंगी कल्पना और जिज्ञासाओं का निवास होना चाहिए, वहॉं अपराध की दखलअंदाजी क्यों?    

ऐसी ही एक सनसनीखेज बालहिंसा की घटना पर रूहेलखण्ड मेडिकल कॉलेज की मनोविज्ञानी डॉ. हेमा खन्ना ने कहा था कि किशोरावस्था की ओर बढ़ते बच्चों में तेजी से हार्मोन्स परिवर्तित होते हैं| इस स्थिति में फिल्मों और टेलीविजन  में दिखाए जाने वाले दृश्य उनके दिमाग में बैठ जाते हैं और वे उसी तरह प्रतिक्रिया देने लगते हैं| बालहिंसा के प्रकरण भी ऐसे किसी दृश्य के नकल के दुष्परिणाम होते हैं| मनोविज्ञानवेत्ता की त्वरित प्रतिक्रिया के तौर पर यह कथन ठीक है, लेकिन इसके  पीछे और भी कई उलझे मनो-सामाजिक द्वन्द्व होते हैं|   
 
पहले किशोरावस्था की दिशा में बढ़ते बच्चों में हार्मोनल परिवर्तन की आयु 12 वर्ष  के आसपास शुरू होती थी, तब किन्हीं बच्चों में एनिमल इन्सटिंकट्स’ प्रबल हो जाया करते थे| यह गुस्सैल, आक्रामक, चिड़चिड़े और आत्मनियंत्रण में कमजोर होते थे| मगर अभी के जो निष्कर्ष हैं, उसके अनुसार झंझावात की अवस्था डेढ़-दो वर्ष पहले ही आने लगी है| इसका कारण है-प्रकृति से कटा कृत्रिम जीवन, भौतिकवाद से उपजी जीवनशैली, रेडीमेड खानपान, बच्चों में बढ़ता अकेलापन और सूचना विस्फोट...|

सुपौल वाली घटना का बच्चा तो मात्र पांच साल का है| सम्भव है यह उन बच्चों में हो जो अपना अधिक समय टीवी के आगे या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिता रहे हैं| इस श्रेणी में निम्नवर्ग के बच्चे भी हैं| इनके परिवार में स्मार्टफोन भले ही न हो, किन्तु अपने मध्यवर्ग के मित्रों के बीच यह भी मोबाइल में उपलब्ध वयस्क कंटेन्ट या क्राइम थ्रिलर का मजा लेने में पीछे नहीं रहते हैं| फिल्म, टीवी के क्राइम पर आधारित धारावाहिक और वीडियो गेम की मारधाड़ व खूनखराबा को बार-बार देखने वाला बच्चा हिंसा के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है और हिंसापूर्ण कृत्य उसके लिए आनन्द की सामग्री बन जाते हैं|  
  
आज के बचपन की स्थितियों को लेकर जब हम अपने आसपास गंभीरता से दृष्टिपात करते हैं तो बच्चे का पूरा माहौल ही संवेदनाओं से कटा हुआ मिलता है| शिक्षा यांत्रिक हो चुकी है, यह बच्चों को तेज दिमाग वाला रोबोट बनाने में लगी है| अध्यापक के सामने भारी-भरकम पाठ्यक्रम पूरा करने की जिम्मेदारी है और विद्यार्थी के आगे इसे याद करने की चुनौती ..! छात्र-अध्यापक के बीच होने वाले अनौपचारिक संवाद समाप्तप्राय हैं| पारिवारिक परिवेश में आए बदलाव भी बच्चे पर गलत असर डाल रहे हैं| पहले बच्चे अपना अधिकतर समय परिवार के सदस्यों के बीच बिताते थे| माता-पिता, दादा-दादी से उनका सघन संवाद हुआ करता था|उसे भरपूर प्यार मिलता था तो गलती पर डांट भी ! किन्तु अब ऐसा नहीं है|    
  
रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन है- बच्चों का सम्पूर्ण मानसिक और शारीरिक विकास प्रकृति की गोद में ही संभव है| ’इस कथन के पीछे बच्चों के मन में संवेदनात्मक और नैतिकता का भाव भरने का विचार था| बच्चे प्रकृति से कोमलता-उदारता सीखते   हैं| पहले पारिवारिक जीवन में कई परम्पराएं थीं, जो बच्चों को परिवेश से जोड़ती थीं| रसोईं में सिकने वाली पहली रोटी गाय की और आखिरी रोटी कुत्ते की कही जाती थी| बुजुर्ग चींटियों की बिल के आसपास आटा डालते थे| झारने-बीनने के बाद जो मरियल अनाज बचता था, उसे चिड़ियों के चुगने के लिए पेड़ों के नीचे डालने की परम्परा थी| छोटे बच्चों के लिए इसमें भरपूर रोचकता थी इससे वह गाय, कुत्ते, चींटी, चिड़ियों से ही नहीं आकर्षित होते थे, बल्कि धीरे-धीरे ढेर सारे जीव-जंतुओं, वनस्पति, नदी, पहाड़, झरनों से जुड़ते थ|े इनको लेकर वह ढेर सारी कल्पनाएं करता था| उसकी कल्पनाएं बेसिर-पैर की होती थीं| मगर यह उसके दिमाग को झाड़-पोंछकर साफ और सक्रिय रखती थीं|    

आज कहा जाने लगा है कि दुनिया तर्क, विज्ञान, सूचना और वास्तविकता पर टिकी है| यथार्थ के नाम पर कल्पना किस्से-कहानियों और कविता से भी खारिज कर दी गई है|  कल्पनाविहीन सृजनात्मकता की दुनिया में नैसर्गिकता का अभाव है| परिणामतः हर दिन ऐसा कुछ घटित हो रहा है, जो हमें चौंकाता हैं| बचपन जीवन की सबसे चुहलभरी अवस्था हुआ करती थी| खाना-पीना, खेलकूद, बेफिक्री, हल्के-फुल्के झगड़े, फिर सुलह, दोस्तों संग मस्ती-यह होता था बचपन...! मगर अब लगता है बचपन आता ही नहीं|    

आज का बचपन शुरू से ही दौड़ में शामिल हो जाता है| कम उम्र से पढ़ाई का दबाव, आगे रहने की चुनौती, हॉबी क्लासेज जैसे उपक्रमों के बीच बाल जीवन की स्वभाविकता ही समाप्तप्राय हो गई है| जबकि बचपन की उमंगों भरी हरकतें ही एक मजबूत व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं| मजबूत व्यक्तित्व आक्रामक, गुस्सैल और हिंसक नहीं होता| बल्कि वह सृजनशील होता है और सृजनात्मकता कल्पना की देन होती है|    

कल्पनाशीलता प्रकृति की गोद में पनपती है| मगर जरूरी नहीं कि इसके लिए आप हिल स्टेशन  जाएं| मोहल्ले के पार्क में बच्चों के साथ थोड़ा समय बिताना, बच्चों को अपने साथ खेत-खलिहान और बाग में ले जाना भी प्रकृति की गोद की पूर्ति कर  सकता है| उनके मन की बात सुनकर उसपर अपनी सकारात्मक राय देकर भी आप बच्चे के मन को हल्का कर सकते हैं| अभिभावक अगर बच्चों की छोटी-बड़ी बातों पर गौर करते हैं, तो बच्चों का उग्र और शरारती स्वभाव शांत रहता है| नसीहत देने के बजाय उनकी पूरी बात गंभीरता से सुनी जाय| फिर वे खुद ही अपनी भावनाएं और समस्याएं आप से साझा करेंगे|    

अकेलेपन से त्रस्त बच्चे अनुकूलन में अत्यंत कमजोर होते हैं| इनके मस्तिष्क में एक नासमझी का कुहासा भरा होता है, जो विवेक सम्मत निर्णय लेने से इतर तात्कालिक आवेग के स्तर पर निर्णय लेने को प्रेरित करता है| परिणामतः खूनखराबा की घटनाएं सामने आती हैं| संभलने का मौका सदैव रहता है|     बचपन को कृत्रिम बेड़ियों से मुक्त करके सहज भाव से जीने दें, जिसमें पढ़ाई के साथ खेलकूद और यारी-दोस्ती की मस्ती हो, साथ ही प्रेम भरे स्नेहिल आलिंगन और चुंबन भी! बस इतने से ही बच्चों के मन में घर करती विध्वंस की धुंध साफ होने लगेगी| 

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