दैविक ज्योति ज्ञान-विज्ञान को जागृत करने का अवसर नवरात्र

ईश्वर की दिव्य शक्ति को ही 'दैवीय', जिसका अपभ्रंश होकर देवी कहा जाता है

दैविक ज्योति ज्ञान-विज्ञान को जागृत करने का अवसर नवरात्र

Photo: PixaBay

अशोक प्रवृद्ध

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वैदिक मतानुसार वेद सब सत्य विधाओं की पुस्तक है| वेद अपौरुषेय हैं| वेद ईश्वर की वाणी है| वेद सब सत्य विद्याओं का मूल है| इसलिए केवल वेद विद्या पर ही विश्वास करना चाहिए| ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र उपाय महर्षि पतंजलि प्रणीत यम, नियम, आसान, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि है| महर्षि दयानंद सरस्वती विरचित सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में यह कहा गया है कि देव अथवा देवी ईश्वर के ही गौणिक नाम है| ईश्वर को पुलिंग अथवा स्त्रीलिंग या नपुंसक लिंग में पुकारा जा सकता है| ईश्वर की दिव्य शक्ति को ही दैवीय जिसका अपभ्रंश होकर देवी कहा जाता है| ईश्वर के विषय में तो वेद में लिखा है कि उस ईश्वर की कोई प्रतिमा या मूर्ति नहीं हो सकती- न तस्य प्रतिमा अस्ति| मूर्ति पूजा करना जड़ की पूजा करना है| इससे बुद्धि जड़ होती है| अज्ञानता और अंधकार को बढ़ावा मिलता है| जिससे पाप लगता है| इसलिए उस दिव्य शक्ति परमात्मा की कोई मूर्ति न तो बनानी चाहिए और न ही मूर्ति की पूजा करनी चाहिए| लेकिन इस वैदिक सत्य को नकारकर लोग देवी-देवताओं की मूर्तियॉं बनाकर उन्हें मंदिर आदि स्थल पर प्रतिस्थापित करते हैं और नवरात्र सहित कई अवसरों पर उन प्रतिमाओं की पूजन करते हैं|

भारत में अतिप्राचीन काल से नवरात्रि पर्व हर्षोल्लास पूर्वक धूमधाम से मनाए जाने की ऐतिहासिक, समृद्ध व विस्तृत परंपरा रही है| मान्यतानुसार इन दिनों में मन से माता दुर्गा की उपासना करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होने की मान्यता होने के कारण इन दिनों में शक्ति के नौ रूपों की पूजा -अर्चना की जाती है| इसलिए इस त्योहार को नौ दिनों तक मनाया जाता है, जिसे नवरात्र कहा जाता है| नवरात्र में दो शब्द है- नव और रात्र| नव शब्द संख्या का वाचक है, और रात्र का अर्थ है- रात्रि समूह अर्थात काल विशेष्| इस नवरात्र शब्द में संख्या और काल का अद्भुत सम्मिश्रण है| शब्द नवरात्र- नवानां रात्रीणां समाहारः नवरात्रम| रात्राह्नाय पुंसि| (पाणिनी २/४/९) तथा संख्यापूर्वे रात्रम् | (क्लीवम लि. सूक्त १३१) से बना है| यों ही द्विरात्रं, त्रिरात्रं, पांचरात्रं (पांचरात्रादि में विष्णुरात्र, इंद्ररात्र, ऋषिरात्र आदि पद तत्व ज्ञानप्रद अर्थक भी प्रयुक्त हैं), गणरात्रम् आदि द्विगु समासांत शब्द हैं| इस प्रकार इस शब्द से जगत के सर्जन- पालन रूप अग्नीसोमात्मक द्वन्द्व (मिथुन) की पुष्टि होती है| आद्याशक्ति भगवती स्वयं कहती है-शरत्काले महापूजा क्रियते या छ वार्षिकी| तस्यां ममैतन्महात्म्य श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः॥ सर्वाबाधानिर्मुक्तों धनधान्यसुतान्वितः | मनुष्यों मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥ -देवी माहात्म्य, फलश्रुतिर्नाम  द्वादश अध्याय १२-१३

अर्थात- शरद ऋतु में मेरी जो वार्षिक महापूजा अर्थात नवरात्र पूजन होता है, (वर्षारंभ अर्थात चैत्र के नवरात्र में वार्षिकी वासंती नवरात्र एवं शरद ऋतु- आश्विन नवरात्र में मेरी जो महापूजा की जाती है, उसमें भी यह च कार से व्यंजित है|), उसमें श्रद्धा भक्ति के साथ मेरे इस देवी माहात्म्य (सप्तशती) का पाठ या श्रवण करना चाहिए| ऐसा करने पर निःसंदेह मेरे कृपा प्रसाद से मानव सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्त होता है, और धन- धान्य, पशु- पुत्रादि संपति से सम्पन्न हो जाता है|

मानव जीवन की प्राणप्रद ऋतुएं मूलतः छह होने पर भी मुख्यतः दो ही हैं- शीत ऋतु (सर्दी) और ग्रीष्म ऋतु (गर्मी)| आश्विन से शरद ऋतु से शीत तो चैत्र से वसंत से ग्रीष्म| ये दो ऋतु भी विश्व के लिए एक वरद मिथुन (जोड़ा) बन जाता है| एक से गेहूं (अग्नि) तो दूसरे से चावल (सोम) के युगल का सादर उपहार देती है| यही कारण है कि ये दो नवरात्र नवगौरी अथवा परब्रह्म श्रीराम का नवरात्र और और नवदुर्गा अथवा सबकी आद्या महालक्ष्मी के नवरात्र सर्वमान्य हो गए|
नवरात्रि हमेशा दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल-प्रथम सर्दी के बाद गर्मी शुरु होते समय चैत्र मास में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लेकर चैत्र शुक्ल नवमी तक और द्वितीय गर्मी- वर्षा के बाद सर्दी शुरु होने पर आश्विन मास में आश्विन शुक्ल प्रथमा से लेकर आश्विन शुक्ल नवमी तक में आती है| जाड़े और वर्षा के बाद ही बीमार पड़ने की संभावना अधिक होती है| ऋतु परिवर्तन के दो मास बीतने वाले मास के अंतिम सात दिन और आने वाले मास के प्रथम सात दिन कुल चौदह दिन के इस समय को ऋतु संधि कहा जाता है| इन दोनों नवरात्रों अर्थात जाड़े और वर्षा ऋतु के बाद ऋतु परिवर्तन होते समय अर्थात ऋतु संधिकाल में हमारी सभी अग्नि जठराग्नि और भूताग्नि कम होने के साथ-साथ शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी कमी आ जाती है| इस समय प्राप्त भोज्य सामग्री के दूषित होने की संभावना अधिक होती है| इस कारण इस ऋतु संधिकाल और इसके आस-पास के समय में विभिन्न रोग होने की संभावना बेतहासा बढ़ जाती है| इस मौसम में ज्वर अतिसार आंत्र ज्वर, पेट में जलन, खट्टी डकार, डेंगू, बुखार, मलेरिया. वायरल बुखार, एलेर्जी आदि-आदि कितने रोग पैदा हो जाते है| ऐसे रोगों से बचाव के लिए नवरात्र एक आयुर्वेदिक पर्व है| नवरात्र नामक इस भारतीय पर्व परंपरा के पीछे एक आध्यात्मिक, प्राकृतिक, आयुर्वेदीय, वैज्ञानिक और स्वास्थ्य संबंधी रहस्य निहित है| दो मुख्य मौसमों के संक्रमण काल में आने वाली अश्वनि नक्षत्र अर्थात शारदीय नवरात्र और चैत्र अर्थात वासन्तीय नवरात्रि, दोनों का ही अपना एक अलग महत्व होता है| प्राकृतिक आधार पर नवरात्रि ग्रीष्म और सर्दियों की शुरुआत से पहले होती है| प्रकृति के परिर्वतन का यह उत्सव होता है| नवरात्र के इन दोनों ही कालावधि के समय दिन और रात की लंबाई बराबर होती है| इसी समय पर नवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है| आयुर्वेद मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा और रोगी के रोग की चिकित्सा आदि सिद्धांतों पर कार्य करता है| नवरात्र में नौ दिन नवरात्रि व्रत, उपवास -जागरण आदि किया जाता है| और शरीर के नौ द्वारों को जागरुक किया जाता है| वैदिक साहित्य में नव द्वार शब्द आया है- नवद्वारे पुरेदेहि| अर्थात -नौ दरवाजों का नगर ही हमारा शरीर है|

शरीर में नौ द्वार होते हैं- दो कान, दो आंख, दो नासाछिद्र, एक मुख और दो उपस्थ इन्द्रि अर्थात मल द्वार मूत्र द्वार| इन नौ द्वारों में छाए अंधकार को अनुष्ठान के माध्यम से एक-एक रात्रि में एक-एक इंद्रियों के द्वार के संबंध में मनन, चिंतन कर यह अनुभव प्राप्त करना, विचार करना चाहिए कि उनमें किस-किस प्रकार की विशेषताएं हैं, आभाएं हैं? तथा उनका किस प्रकार का विज्ञान है? उनसे शरीर के बेहतर संचालन के लिए कैसे कार्य लिया जा सकता है? ऐसे चिंतन, मनन, विचार का समय का नाम नवरात्रि है| इस प्रकार नव द्वार में छाए हुए रात्रि का अर्थ हुआ-अंधकार| अंधकार से प्रकाश में लाने की प्रक्रिया को ही जागरण कहा जाता है| जागरण का अर्थ है- जागरूक रहना| जागरूक रहने वाले मनुष्य के यहॉं रात्रि जैसी कोई वस्तु नहीं होती| रात्रि तो उनके लिए होती है, जो जागरूक नहीं रहते| इसलिए आत्मा से जागरूक हो जाने वाले परमात्मा के राष्ट्र में चले जाते हैं और वे नवरात्रियों में नहीं आते| माता के गर्भस्थल में रहने के नव मास भी रात्रि के ही रूप हैं, क्योंकि वहॉं पर भी अंधकार रहता है, वहॉं पर रूद्र रमण करता है और वहॉं पर मूत्रों की मलिनता रहती है| उसमें आत्मा नवमास तक वास करके शरीर का निर्माण करता है| वहॉं पर भयंकर अंधकार है| इसलिए नौ द्वारों से जागरूक रहकर उनमें अशुद्धता नहीं आने देने वाला मानव नव मास के इस अंधकार में नहीं जाता, जहॉं मानव का जीवन महाकष्टमय होता है| वहॉं इतना भयंकर अंधकार होता है कि मानव न तो वहॉं पर कोई विचार-विनिमय कर सकता है, न ही कोई अनुसंधान कर सकता है और न विज्ञान में जा सकता है| इस अंधकार को नष्ट करने के लिए भारतीय परंपरा में गृहस्थियों में पति-पत्नी को जीवन में दैव यज्ञ अनुष्ठान करने का विधान किया गया है| दैव यज्ञ का अर्थ है- ज्योति को जागरूक करना, जागृत करना| दैविक ज्योति का अर्थ है- दैविक ज्ञान-विज्ञान को अपने में भरण करने का प्रयास करना| वही आनंदमयी ज्योति, जिसका वर्णन वेदों में किया गया है, और जिसको जानने के लिए ऋषि- मुनियों ने प्रयत्न किया| इसमें प्रकृति माता की उपासना की जाती है, जिससे वायुमंडल में वातावरण शुद्ध हो और अन्न दूषित न हो| इस समय माता पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की वनस्पतियॉं परिपक्व होती है| इसीलिए विद्वान, बुद्धिजीवी प्राणी माता दुर्गे की याचना करते हैं अर्थात प्रकृति की उपासना करते हुए माता से अपने घर को इन ममतामयी वनस्पतियों से भर देने की प्रार्थना करते हैं|  

बहरहाल, नवरात्र का वैदिक स्वरूप बदल गया है, और वर्तमान में प्रतिमा निर्माण कर नवरात्र के प्रथम दिन देवी शैलपुत्री की पूजा देवी पार्वती के रूप में की जाती है| द्वितीय दिन देवी पार्वती के यौवन रूप को प्रतिष्ठित करने वाली ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा होती है| तृतीय दिन प्रशांत स्वरूप को धरण करने वाली देवी चंद्रघंटा की पूजा होती है| चौथे दिन भयंकर और उग्र रूप वाली देवी कूष्मांडा की पूजा की जाती है| पांचवे दिन कार्तिकेय की माता देवी स्कंदमाता की पूजा होती है| छठे दिन अपनी तपस्या से भगवान विष्णु को प्राप्त करने वाली देवी कात्यायनी की पूजा की जाती है| सप्तमी दिन काली माता के रूप में कालरात्रि देवी की पूजा होती है| अष्टमी के दिन धर्म और भक्ति की प्रतीक देवी महागौरी की पूजा होती है| नवमी के दिन सभी सिद्धियों को देने वाली देवी सिद्धिदात्री की पूजा होती है| नवरात्रि का अंतिम दिन विजयादशमी (दशहरा) होता है, जिसे देवी दुर्गा के विजय का प्रतीक माना जाता है|

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