समुद्रों का जल स्तर

अगर समुद्र का जल स्तर बढ़ा तो तटीय इलाकों के रहन-सहन, कारोबार पर प्रतिकूल प्रभाव होगा

समुद्रों का जल स्तर

यह प्रकृति के अतिदोहन और हमारी लापरवाही का परिणाम है

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों को लेकर जो 'चेतावनी' दी है, वह गंभीर है। पूरी दुनिया को समय रहते इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे, अन्यथा परिणाम नियंत्रण से बाहर जा सकते हैं। 

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गुतारेस का यह कहना भी चिंता का विषय है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग ‘चमत्कारिक रूप से’ 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर ली जाए, तो भी समुद्र का जल स्तर इतना बढ़ जाएगा, जो बांग्लादेश, चीन और भारत जैसे कई देशों के लिए खतरा पैदा कर सकता है। जाहिर-सी बात है कि अगर समुद्र का जल स्तर बढ़ा तो तटीय इलाकों के रहन-सहन, कारोबार पर प्रतिकूल प्रभाव होगा। 

यह प्रकृति के अतिदोहन और हमारी लापरवाही का परिणाम है कि प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के कई दुष्प्रभाव तीव्रता से सामने आ रहे हैं। अगर चालीस-पचास साल इसी तरह अंधाधुंध दोहन करते रहे तो धरती पर हमारा भविष्य क्या होगा? 

यह पढ़ने-सुनने में मामूली-सी बात लग सकती है कि तापमान में एक-दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो भी गई तो क्या हो जाएगा! विशेषज्ञ कह चुके हैं कि अगर तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो गई तो समुद्र का स्तर दोगुना हो सकता है। चूंकि इससे ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे, जिसके परिणामस्वरूप बाढ़ आएगी। 

ध्यान रखें कि बाढ़ की स्थिति खेती और बसावट को भारी नुकसान पहुंचाती है। फिर यह पानी समुद्र में जाएगा तो वहां जल स्तर बढ़ने से तटीय इलाकों में जनजीवन प्रभावित होगा। इस तरह यह सिलसिला आगे से आगे अपना प्रभाव छोड़ता जाएगा। हमारे शास्त्रों में धरती को माता कहा गया है। इसके पीछे एक गूढ़ दर्शन है। जो व्यक्ति धरती के साथ अपना रिश्ता मां और संतान का समझेगा, वह इसका सदैव ध्यान रखेगा।

ऋषियों ने प्रकृति को जीतने की जगह उसके साथ सामंजस्य बनाकर चलने का आह्वान किया है। जब पर्यावरण के प्रति ऐसी संवेदनशीलता होगी, तब ही हम उसका महत्त्व समझ सकते हैं, सुखी रह सकते हैं।

पिछले सौ वर्षों में विज्ञान के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई, लेकिन इससे मनुष्य की 'भूख' कम नहीं हुई। हर चीज पर वर्चस्व और अव्वल रहने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने धरती को उजाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वनों की कटाई, खेती में रसायनों के अत्यधिक उपयोग, अधिकाधिक गाड़ियां रखने की होड़, भूजल का अतिदोहन ... ये तो कुछ ही उदाहरण हैं। 

अगर हमें धरती पर रहना है तो अपनी जीवनशैली में कुछ बदलाव तो करने ही होंगे, यह मालूम करना होगा कि धरती मां पीड़ित एवं त्रस्त क्यों है? प्राय: पर्यावरण को सरकार की जिम्मेदारी मान लिया जाता है, लेकिन इसमें असंतुलन के प्रभाव सबसे ज्यादा आम जनता को भुगतने पड़ते हैं। गुतारेस के इन शब्दों पर ध्यान दीजिए, 'किसी भी परिदृश्य में बांग्लादेश, चीन, भारत और नीदरलैंड जैसे देश जोखिम में हैं और काहिरा, लागोस, मापुटो, बैंकॉक, ढाका, जकार्ता, मुंबई, शंघाई, कोपेनहेगन, लंदन, लॉस एंजिलिस, न्यूयॉर्क, ब्यूनस आयर्स और सैंटियागो सहित हर महाद्वीप के बड़े शहरों पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा।' 

स्पष्ट है कि यह किसी एक शहर या एक देश की समस्या नहीं है। जब पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं तो आबादी का बड़ा हिस्सा उसकी चपेट में आता है। इसका ज्वलंत उदाहरण है- पाकिस्तान, जहां पिछले साल जबरदस्त बाढ़ आई, जिसने करोड़ों लोगों के जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया था। इससे खेती, कारोबार, मकान ... समेत बहुत चीजों का नुकसान हुआ। हजारों लोगों की मौत हुई। कई परिवार आज तक तंबुओं में आशियाना बनाए हुए हैं। 

अगर पर्यावरणीय परिस्थितियां प्रतिकूल होती रहीं तो आने वाले वर्षों में हालात इससे भी ज्यादा बदतर हो सकते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनी जीवनशैली भविष्य को ध्यान में रखते हुए तब्दील करें। प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन न हो। स्वच्छ ऊर्जा के स्रोतों पर जोर दिया जाए और धरती की सेहत का ध्यान रखा जाए। याद रखें, अभी हमारे पास यही ग्रह है, जिस पर हम रह सकते हैं।

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