अतीक प्रकरण से सबक

अतीक ने ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा आपराधिक कार्यों में गुजारा था

अतीक प्रकरण से सबक

अतीक पांच बार विधायक और एक बार सांसद रहा था

गैंगस्टर से नेता बने अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद की प्रयागराज में मेडिकल कॉलेज के पास मीडिया कैमरों के सामने हत्या अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई है। मामले की जांच के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस ने दो विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन कर दिया है। उम्मीद है कि इस गोलीकांड का सच जल्द सामने आएगा। 

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अतीक ने ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा आपराधिक कार्यों में गुजारा। एक समय था, जब प्रयागराज पश्चिम में उसका डंका बजता था। जो लोग उसके कृपा-पात्र हो जाते, उनकी दबंगई चलती थी। जिनकी ओर उसकी वक्र दृष्टि हो जाती, उनका जीना मुहाल हो जाता। वह आखिरकार उसी इलाके में गोलीबारी का शिकार हो गया। 

अतीक पर सौ से ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए थे। उसने उचित-अनुचित सभी तरीकों से कमाई कर अरबों का साम्राज्य खड़ा किया था।अतीक का पिता आपराधिक प्रवृत्ति वाला था। उसकी खुद की पहचान भी आपराधिक कार्यों से ज्यादा थी। उसका भाई अशरफ उसके इन कार्यों में शामिल रहा, जिस पर तीन दर्जन से ज्यादा मुकदमे दर्ज थे। उसके बेटे समेत खानदान के कई लोगों का आपराधिक रिकॉर्ड रहा है। इन सबके बावजूद ये लोग राजनीति में सक्रिय थे। 

अतीक पांच बार विधायक और एक बार सांसद रहा। अशरफ भी पूर्व विधायक था। अतीक के कर्मों का लेखा-जोखा तो होगा ही, लेकिन 'जनता-जनार्दन' को भी खुद से यह सवाल करना चाहिए कि वह गंभीर आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्ति को विधायक और सांसद बनाकर अपनी कृपा क्यों बरसाती रही? 

अपराध और अवैध तरीकों से धन कमाने के बाद ऐसे लोग अपने 'साम्राज्य' को सुरक्षित करने के लिए राजनीति में आ जाते हैं और यह उनका 'आश्रय स्थल' बन जाती है। जब 'माननीय' की गाड़ी सायरन बजाती हुई निकलती है तो कौन उसे रोकने की जुर्रत कर सकता है? 

निस्संदेह अतीक ने धन और बल के मद में कई अनुचित कार्य किए। अगर वह चुनावी राजनीति में ज्यादा कामयाब नहीं होता तो इतना ताकतवर भी नहीं बनता। अतीक-अशरफ प्रकरण से देश को यह सबक लेना चाहिए कि अपराधी तत्त्व हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली का अनुचित लाभ न उठा पाएं।

अतीक का बेटा असद और शूटर गुलाम पहले ही उप्र एसटीएफ के साथ मुठभेड़ में मारे जा चुके हैं। उमेश पाल हत्याकांड में वांछित और पांच लाख रु. के इनामी रहे ये दोनों लोग उस समय गोलियों के शिकार हुए, जब झांसी से करीब 30 किमी दूर बड़ागांव में एसटीएफ ने उनकी बाइक को रोकने की कोशिश की थी। उन्होंने पुलिस की ओर गोलियां बरसाईं और तो जवाबी कार्रवाई में मारे गए। 

अब उनकी मौत को लेकर सोशल मीडिया पर हंगामा बरपा हुआ है। इसे 'मानवाधिकारों का उल्लंघन, पुलिस का जंगलराज, योगी के प्रदेश में अत्याचार' करार देकर दोनों के पक्ष में सहानुभूति की लहर चलाने की कोशिश हो रही है। सवाल है- जो लोग अब उनके पक्ष में आवाज उठा रहे हैं, उन्होंने समय रहते दोनों को यह सलाह क्यों नहीं दी कि वे अदालत में आत्मसमर्पण कर दें? 

अब उनकी मौत पर सियासत और सहानुभूति की रोटियां क्यों सेकी जा रही हैं? असद हो या कोई और, याद रखें कि अपराधी की गोली से ज्यादा ताकत सिपाही की गोली में होती है, क्योंकि उसके पीछे देश का कानून होता है। अगर असद और शूटर गुलाम एसटीएफ की ओर गोलीबारी न करते और कानूनी रास्ता अपनाते तो आज ज़िंदा होते। भले ही वे जेल में होते, अदालत उनका हिसाब करती, लेकिन उनका ऐसा अंत नहीं होता। 

अतीक खुद तो अपराध के रास्ते पर चला, उसने अपनी औलाद को भी यही विरासत सौंपी। बेहतर तो यह होता कि राजनीति में आते ही वह अपराध से तौबा कर लेता और राजनीतिक शक्ति का उपयोग लोगों की भलाई के लिए करता। उसने हर अपराध को 'तरक्की' की सीढ़ी समझा और इस रास्ते पर इतना आगे बढ़ गया, जहां से लौटने की गुंजाइश ही न रही। 

अतीक की हत्या के आरोपी युवक 18 से 23 साल की उम्र के हैं। अभी यह बात सामने आ रही है कि इस हत्याकांड के बाद वे अपराध जगत में बड़ा 'नाम' कमाना चाहते थे। 'बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा' की तर्ज पर नौजवानों का अपराध के दल-दल में उतरना चिंताजनक है। सरकार को ऐसे मामलों में सख्ती बरतते हुए कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। 

इन दिनों सोशल मीडिया पर अपराधियों का महिमा-मंडन भी खूब हो रहा है, जिससे कम उम्र के युवकों को बड़ा अपराधी बनने का शौक चर्रा जाता है। पुलिस और संबंधित एजेंसियों को ऐसे तत्त्वों पर शिकंजा कसना चाहिए। कहीं आज का मामूली गुंडा भविष्य का 'अतीक' न बन जाए।

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