ऐतिहासिक कदम
यूसीसी द्वारा किसी के पहनावे और धार्मिक मान्यताओं में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाता है
सुधारों का यह सिलसिला बुद्धि, विवेक और तर्क का उपयोग करते हुए भविष्य में भी जारी रहना चाहिए
उत्तराखंड ने सामाजिक समानता और न्याय की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाया है। समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक का विधानसभा में पारित होना न केवल राज्य सरकार की, बल्कि उन सभी लोगों की जीत है, जो सामाजिक समानता और सुधारों के पक्षधर हैं। इससे अन्य राज्यों में भी यूसीसी लाने के लिए माहौल बनेगा, उनकी सरकारें उत्तराखंड के अनुभव का लाभ लेंगी। ज़रूरत पड़ने पर कुछ सुधार-बदलाव भी किए जा सकते हैं। इस बीच, कहीं-कहीं यूसीसी के विरोध में आवाजें उठ रही हैं। यह ‘तर्क’ दिया जा रहा है कि इससे देश की सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता खतरे में पड़ सकती है! वास्तव में यूसीसी का इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि आप क्या खाते, क्या पहनते, कौनसी भाषा बोलते और किस धर्म का पालन करते हैं। तो सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता के खतरे में पड़ने का सवाल कहां से पैदा हो गया? हां, इसमें विवाह, तलाक, भूमि, संपत्ति और विरासत से जुड़े अधिकारों में ज्यादा प्रासंगिकता एवं समानता लाने का मार्ग प्रशस्त किया गया है। सोशल मीडिया पर कुछ लोग दुर्भावनावश या अज्ञानवश यह अफवाह फैला रहे हैं कि यूनिफाॅर्म सिविल कोड आने से सब लोगों को एक ही जैसी ‘यूनिफाॅर्म’ पहननी होगी और धार्मिक पहनावे पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा! कहीं यह लिखा जा रहा है कि इससे अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुसार विवाह जैसे संस्कार नहीं कर पाएंगे, सब काम अदालतों से होगा! ऐसी टिप्पणियां पूरी तरह निराधार हैं। यूसीसी द्वारा किसी के पहनावे और धार्मिक मान्यताओं में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाता है। इसके जरिए सामाजिक समानता लाने के लिए कानूनों का सरलीकरण किया गया है। यह लागू होगा तो विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने, भरण-पोषण आदि मामलों में महिलाओं को समान अधिकार मिलेंगे। क्या हमें 21वीं सदी में ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए?
याद करें, अंग्रेजों के राज में जब भारतवासी विदेशी शासकों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे, उस दौरान समाज-सुधारक भी सक्रिय थे। वे महिला शिक्षा की अलख जगा रहे थे। उन्होंने कई कुरीतियों का डटकर विरोध किया था। आज जब हम भारत के चंद्र मिशन, सौर मिशन समेत कई अंतरिक्ष अभियानों को सफल होते देख रहे हैं, जिनमें देश की बेटियों का बहुत बड़ा योगदान है, तो उनकी इस सफलता के पीछे उन सुधारकों की भी तपस्या है। कोई भी सुधार, चाहे वह प्रत्यक्ष सामाजिक सुधार हो या कानूनी तौर-तरीकों से लाया गया सुधार हो, उसका लाभ मिलने में समय लगता है। यह एक पौधे को सींचने जैसा है, जिसके वृक्ष बनकर फल देने तक किसान को धैर्य रखना होता है। वर्तमान की आवश्यकताओं और भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए विवेकपूर्ण तरीके से स्वस्थ व्यवस्थाओं को स्वीकार करना चाहिए। इसी का नाम यूसीसी है। सुधारों और स्वस्थ व्यवस्थाओं को अपनाने का अर्थ यह नहीं है कि हम धर्म से दूर हो जाएंगे। पिछले 500 वर्षों का ही इतिहास पढ़ें तो पाएंगे कि समाज में ऐसी कई परंपराओं का चलन था, जो उस ज़माने में प्रासंगिक रही होंगी, लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे अपनी प्रासंगिकता खो दी। बाद में उन्हें सामाजिक सुधार या कानूनी तरीके से हटा दिया गया। उन्हें हटाने से संबंधित समुदाय की धार्मिक आस्था को कोई ठेस नहीं पहुंची। सुधारों का यह सिलसिला बुद्धि, विवेक और तर्क का उपयोग करते हुए भविष्य में भी जारी रहना चाहिए।