सुधारों की ओर बड़ा कदम

देश ने चुनावी राजनीति के कई अनुभव हासिल करते हुए पहले भी सुधार किए थे

सुधारों की ओर बड़ा कदम

'एक देश, एक चुनाव' से होने वाले सुधारों के फल भविष्य में देखने को मिलेंगे

केंद्र सरकार ने 'एक देश, एक चुनाव' संबंधी सिफारिश मंजूर कर चुनाव सुधारों की ओर बड़ा कदम उठा दिया है। यह कदम जल्दबाजी में नहीं उठाया गया है। इसके लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने काफी अध्ययन किया, विभिन्न बिंदुओं पर विचार किया, उसके बाद सिफारिशें कीं। हालांकि आगे राह आसान नहीं है, सुधारों की राह आसान होती भी नहीं है। आम राय बनाने, सुधार लागू करने और प्राप्त परिणामों के आधार पर भविष्य में कुछ और सुधारों का रास्ता तैयार करने में समय लगता है। 

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देश ने चुनावी राजनीति के कई अनुभव हासिल करते हुए पहले भी सुधार किए थे। उनसे निश्चित रूप से लोकतंत्र मजबूत हुआ है। आज विधानसभा और लोकसभा चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल किया जाता है। मतपत्र और पेटी की जगह ईवीएम को रखना अपनेआप में बहुत बड़ा चुनाव सुधार था। इससे मतदान और मतगणना का काम बहुत आसान हो गया है। 

ध्यान रखें, ईवीएम का बहुत विरोध हुआ था। आज भी कुछ राजनीतिक दल इस पर सवाल उठाते हैं। नए मतदाताओं ने वह दौर नहीं देखा, जब मतदान केंद्रों के बाहर लोगों को अपनी बारी के लिए काफी समय तक इंतजार करना पड़ता था। मतपत्र लेना, उस पर मुहर लगाना, उसे मोड़ना और पेटी में डालना ... यह बहुत लंबी प्रक्रिया होती थी। कई मतदाता असावधानीवश ऐसी जगह मुहर लगा देते थे, जिससे उनका वोट खारिज हो जाता था। मतगणना के दिन ऐसे मतपत्र झगड़े की वजह बनते थे। 

'एक देश, एक चुनाव' से होने वाले सुधारों के फल भविष्य में देखने को मिलेंगे। विशेषज्ञ तो कह रहे हैं कि एकसाथ चुनाव कराने से चुनावी खर्च में कम से कम 30 प्रतिशत कमी आ सकती है। हालांकि यह सुधार सिर्फ पैसा बचाने के लिए नहीं है। अभी जो स्थिति है, उसमें हर साल चुनाव ही चलते दिखाई देते हैं।

हर चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा के साथ वहां आचार संहिता लग जाती है। उसके बाद कुछ अवधि के लिए विकास कार्य रुक जाते हैं। जनता दफ्तरों के चक्कर लगाती रहती है। नए जनप्रतिनिधि चुनकर आते हैं, वे शपथ लेते हैं, कामकाज संभालते हैं, तब तक जनता के कई काम अटके ही रहते हैं।

भारत को त्योहारों का देश कहा जाता है। इसके साथ, यह चुनावों का देश भी समझा जाता है। यहां हर साल कहीं न कहीं विधानसभा चुनाव होते हैं। स्थानीय शासन के चुनाव होते हैं। इनके अलावा लोकसभा चुनाव हैं, जिन पर दुनियाभर की निगाहें होती हैं। हर साल चुनाव प्रक्रिया ही चलती रहेगी तो विकास कार्य कब होंगे? जब चुनावों पर देश की इतनी ऊर्जा खर्च हो रही है तो क्यों न इसे इस प्रकार खर्च किया जाए, ताकि चुनाव भी संपन्न हों और विकास कार्य भी तेजी से हों। 

'एक देश, एक चुनाव' प्रणाली इसका मार्ग प्रशस्त कर सकती है। अभी इसके विरोध में एक तर्क खूब दिया जा रहा है कि 'अगर इसे लागू किया गया तो चुनाव नतीजों पर काफी असर पड़ सकता है, चूंकि मतदाता कुछ 'भ्रमित' हो सकता है ... लोकसभा चुनावों में उसकी मांगें कुछ और होती हैं, विधानसभा चुनावों में कुछ और होती हैं!' 

वास्तव में यह तर्क आधी-अधूरी तस्वीर पेश करता है। बेशक उक्त दोनों चुनावों में मतदाता की कई मांगें अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन उसे इस बात का पर्याप्त बोध है कि किस चुनाव में किस उम्मीदवार के नाम का बटन दबाना है। यह वो ज़माना नहीं है, जब गांव में दो-चार लोग पढ़े-लिखे होते थे। वे बताते थे कि चुनाव क्या होता है, उम्मीदवार किसे कहते हैं और पर्चे पर कहां ठप्पा लगाना है! 

आज का मतदाता जागरूक है, शिक्षित है, वह मुद्दों पर सवाल करता है। अगर वह किसी भी उम्मीदवार को अपनी कसौटी पर खरा उतरता नहीं पाता है तो नोटा का बटन दबा देता है। ऐसे में भ्रमित होने का तो सवाल ही नहीं उठता। मतदाता जानता है कि किसे विधानसभा में भेजना है और किसे लोकसभा में भेजना है। ऐसा कई बार हुआ, जब जनता ने विधानसभा चुनावों में एक पार्टी को धूमधाम से सत्ता सौंपी, लेकिन लोकसभा चुनावों में उसका सूपड़ा साफ कर दिया। 

हां, ऐसा भी कई बार हुआ, जब दोनों चुनावों में एक ही पार्टी को जनादेश मिला। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि मतदाता को भलीभांति मालूम है कि उसे कब, किसे वोट देना है। अब लोकतंत्र को और ज्यादा मजबूत करने के संकल्प के साथ 'एक देश, एक चुनाव' की ओर आगे बढ़ा जाए। अगला सुधार मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए किया जाए।

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