कर्मचारियों की सेहत पर भारी कंपनी की सफलता?

भारत में वर्किंग ऑवर्स का औसत अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक है

कर्मचारियों की सेहत पर भारी कंपनी की सफलता?

Photo: PixaBay

सोनम लववंशी
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पुणे की २६ वर्षीय एना, एर्न्स्ट एंड यंग (ईवाई) जैसी प्रतिष्ठित कंपनी में काम करती थी| वह अपने स्कूल और कॉलेज की टॉपर थी और कम उम्र में सीए क्वालीफाई करके इस बड़ी कंपनी का हिस्सा बनी थी| यह उसके माता-पिता का सपना था कि उनकी बेटी एक अच्छे संस्थान में काम करे और भविष्य को उज्जवल बनाए| लेकिन, किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि वह कंपनी उसके लिए अवसरों का द्वार नहीं, बल्कि उसकी जान लेने का कारण बनेगी| अत्यधिक कार्यभार और मानसिक दबाव के चलते एना की हार्ट अटैक से मौत हो गई| ऐसे में यह सवाल उठाता है, क्या काम के दबाव से किसी की मौत हो सकती है? एना की मां ने ईवाई के अध्यक्ष को पत्र लिखकर अपनी बेटी की मौत के लिए न्याय की मांग की है| उन्होंने बताया कि एना को इतना काम सौंपा जाता था कि वह चैन से सो भी नहीं पाती थी| देर रात तक मैनेजर कॉल करके रिपोर्ट तैयार करने का दबाव डालते थे| सवाल उठता है, क्या कंपनियों को कर्मचारियों पर इतना दबाव डालने का अधिकार है कि वे मानसिक और शारीरिक रूप से टूट जाएं? आख़िर ऐसे में कहां गए संवैधानिक अधिकार और कहां गुम हो गया नैतिकतावादी दृष्टिकोण? जिस तरीक़े के सवाल या यूं कहें आरोप एना की मां कंपनी पर लगा रही तो यह वक्त है सचेत हो जाने का, क्योंकि कोई भी कंपनी या काम किसी के जीवन से बढ़कर तो नहीं?

वैसे अक्सर कंपनियां इस बात को अनदेखा कर देती हैं कि कर्मचारियों पर अत्यधिक काम का दबाव न सिर्फ उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि उनकी शारीरिक सेहत के लिए भी हानिकारक होता है| वर्कप्लेस स्ट्रेस को नज़रअंदाज़ करने का परिणाम कितना भयावह हो सकता है, यह एना की दुखद मौत से ये बात तो स्पष्ट हो गई है| विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट की मानें तो, २०१६ में लंबे समय तक काम के दबाव के चलते ७ लाख ४५ हजार लोगों की मौत हो गई| ५५ घंटे या उससे अधिक समय तक काम करने से स्ट्रोक का खतरा ३५ प्रतिशत और कोरोनरी हार्ट डिजीज का खतरा १७ प्रतिशत तक बढ़ जाता है| क्या कंपनियों का टॉक्सिक वर्क कल्चर कर्मचारियों की सेहत के लिए घातक हो सकता है?

आज, खासकर कॉर्पोरेट जगत में, कर्मचारियों पर काम का दबाव इतना बढ़ गया है कि उनकी निजी जिंदगी और सेहत बुरी तरह प्रभावित हो रही है| भारत जैसे देश में, जहां वर्किंग ऑवर्स का औसत अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक है, कर्मचारी मानसिक और शारीरिक तनाव से जूझ रहे हैं| एना की मौत ने इस टॉक्सिक कल्चर को उजागर किया है, जहां कर्मचारियों को आराम और मानसिक शांति से वंचित किया जा रहा है| अक्सर, युवा कर्मचारी अपने बॉस या सीनियर्स को काम के दबाव के बारे में बताने से हिचकिचाते हैं| उन्हें डर होता है कि कहीं उनकी नौकरी न चली जाए| इस डर के कारण वे खुद को और अधिक काम में डुबो लेते हैं, जिससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों बुरी तरह प्रभावित होता है| क्या कर्मचारियों के पास अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने का विकल्प होना चाहिए? निःसन्देह कंपनियों को कर्मचारियों के स्वास्थ्य और कल्याण पर ध्यान देने की जरूरत है| एना की तरह बहुत से कर्मचारी काम के दबाव से टूट रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप अवसाद, चिंता और हृदय रोग जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं|

एना की मौत ने यह सवाल खड़ा किया है कि क्या वर्कप्लेस पर तनाव और टॉक्सिक वर्क कल्चर को खत्म करने के लिए किसी प्रकार का बदलाव जरूरी नहीं है? कंपनियों को कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की देखभाल करनी चाहिए और उन्हें स्वस्थ, संतुलित और सुरक्षित कार्य वातावरण प्रदान करना चाहिए| क्या कंपनियों को वर्किंग ऑवर्स और काम के दबाव को नियंत्रित करने के लिए सख्त नीतियों की आवश्यकता नहीं है? एक स्वस्थ कार्य वातावरण न केवल कर्मचारियों के लिए, बल्कि कंपनी की उत्पादकता के लिए भी आवश्यक है| एना की मौत एक चेतावनी है कि कंपनियों को अपने कर्मचारियों की सेहत और मानसिक शांति को प्राथमिकता देनी चाहिए| अगर कंपनियां अपने कर्मचारियों के स्वास्थ्य की अनदेखी करती हैं, तो इसका असर उनकी उत्पादकता और अंततः कंपनी के भविष्य पर भी पड़ेगा| इसीलिए यह जरूरी है कि टॉक्सिक वर्क कल्चर को समाप्त किया जाए और कर्मचारियों की भलाई को प्राथमिकता दी जाए| तभी बेहतर स्थिति का निर्माण किया जा सकता है| जो कर्मचारियों और कम्पनियों सभी के लिए फायदेमंद होगा|

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