कर्मसत्ता से कोई नहीं बच सकता, जो करेंगे, वो ही हम भरेंगे: आचार्यश्री विमलसागरसूरी
सभी साधकाें काे अभिमंत्रित श्रीफल प्रदान कर सम्मानित किया

व्यक्ति जाे बीज बाेता है, वही फसल उसे मिलती है
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के राजाजीनगर स्थित जैन मंदिर में विराजित आचार्यश्री विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि वर्षीतप 400 से अधिक दिन तक चलने वाली मंगलकारी तपसाधना है। जाे ज्ञान और भावपूर्वक यह साधना करते हैं, उनका जीवन बदल जाता है। पाप प्रवृत्तियां अत्यंत कम हाे जाती हैं और पुण्य-प्रवृत्तियाें में मन रम जाता है। यह मनाेवैज्ञानिक सत्य है कि जब तक पाप-अपराध के फल का भय नहीं हाेता, तब तक मनुष्य का मन निष्पाप और हल्का नहीं बन सकता।
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के 400 उपवास की सुदीर्घ साधना की स्मृति में वर्षीतप किया जाता है। शनिवार काे आदिनाथ भगवान के जन्म और दीक्षा कल्याणक के उपलक्ष्य में समवसरण की स्थापना कर सैकड़ाें साधकाें ने वर्षीतप का संकल्प लिया।शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन श्वेतांबर संघ ने सभी साधकाें काे अभिमंत्रित श्रीफल प्रदान कर सम्मानित किया। गणि पद्मविमलसागरजी के सान्निध्य में सेलम, चेन्नई, हिरियूर, चलकेरे, टुमकुर, हुब्बल्ली और हैदराबाद से आए तपस्वियाें ने नाणविधि कर नए वर्षीतप का शुभारंभ किया। मुम्बई के हेनी शाह ने भक्तिगीताें की मधुर प्रस्तुति दी।
बैठक में मार्गदर्शन देते हुए जैनाचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि कर्मवाद का अटल सिद्धांत है कि जैसा हम करेंगे, वैसा हमें भुगतना हाेगा। व्यक्ति जाे बीज बाेता है, वही फसल उसे मिलती है। बबूल बाेने से कांटे ही प्राप्त हाेंगे, आम प्राप्त नहीं किए जा सकते। यदि हम आम प्राप्त करना चाहते हैं ताे हमें आम की गुठलियां बाेनी हाेंगी। इसी प्रकार हमारे दुःख हमारे द्वारा ही उपार्जित हाेते हैं।
उन्होंने कहा कि हम दुःखाें से परेशान हाेते हैं, लेकिन उनके उपार्जन के समय सावधान हाेने का प्रयत्न नहीं करते। यही हमारे मन की सबसे बड़ी कमजाेरी है। दीक्षा लेने के पश्चात आदिनाथ भगवान काे 400 दिन तक उचित आहार-पानी नहीं मिला और उन्हें उपवास करने पड़े। जब भगवान काे भी भुगतना पड़ता हाे ताे सामान्य मनुष्य की क्या बिसात! इसलिए हर प्रवृत्ति काे साेच-समझकर करना चाहिए। पाप-अपराधाें से बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
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