संस्कृति और संस्कारों की अमूल्य विरासत प्राणों से भी हो प्यारी: आचार्य विमलसागरसूरी

नई पीढ़ियां फैशन के नाम पर बेहूदे कपड़े पहनती जा रही हैं

संस्कृति और संस्कारों की अमूल्य विरासत प्राणों से भी हो प्यारी: आचार्य विमलसागरसूरी

डिप्रेशन, अपराध और आत्महत्याओं की घटनाओं में निरंतर बढ़ाेतरी हाे रही है

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के बसवनगुड़ी स्थित जिनकुशलसूरी जैन श्वेतांबर दादावाड़ी ट्रस्ट और संघ के तत्वावधान में बुधवार काे अभिभावकाें और युवाओं के लिए आयाेजित विशेष समाराेह काे संबाेधित करते हुए जैनाचार्य विमलसागर सूरीश्वरजी ने कहा कि भारत की नई पीढ़ियां अपनी राष्ट्रभाषा और स्थानीय मातृभाषा भूलती जा रही हैं। पारंपरिक रीति-रिवाजाें में लाेगाें की रुचि समाप्त प्रायः हाे गई है। भाषा के साथ-साथ उनके परिधान, खानपान, संस्कार, सब बदलते जा रहे हैं। 

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उन्होंने कहा कि अपनी नई पीढ़ियां अंग्रेजाें की गुलाम बनकर फैशन के नाम पर फटे हुए, बेहूदे और कम कपड़े पहनती जा रही हैं। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक विदेशी व्यंजन खाने के शाैक बढ़ते जा रहे हैं। स्वास्थ्यवर्धक भारतीय भाेजन भुलाया जा रहा है। वे अब शराब, हुक्का, गुटखा, धूम्रपान, ड्रग, क्लब संस्कृति, ऑनलाइन गेमिंग जैसी बुराइयाें में बर्बादी के कगार पर पहुंच गई हैं। इनके कारण डिप्रेशन, अपराध और आत्महत्याओं की घटनाओं में निरंतर बढ़ाेतरी हाे रही है। 

उन्होंने कहा कि यह देश व समाज के लिए अत्यंत घातक व चिंताजनक विषय है। लाेग पशु-पक्षियाें और पर्यावरण के संरक्षण की बातें करते हैं और यहां ताे भारतीय समाज का भविष्य ही दांव पर लगा है। जब हमारी नई पीढ़ियां जवानी से पहले ही बर्बाद हाे जाएंगी ताे पशु-पक्षियाें और पर्यावरण काे बचाने का औचित्य भी क्या बचेगा? मेरी बात अप्रिय और आघातजनक है, पर सत्य है।

आचार्यश्री विमलसागर सूरीश्वरजी ने कहा कि अपनी संस्कृति और संस्काराें की अमूल्य विरासत प्राणाें के तुल्य प्यारी हाेनी चाहिए। इनका संरक्षण सम्पूर्ण निष्ठाभावना से किया जाना चाहिए। जिनकी संस्कृति और संस्कार सुरक्षित रहते हैं, मात्र उनका ही धर्म और समाज जीवित रहता है। 

उन्होंने कहा कि इज़रायल, जर्मनी, जापान, चीन और खाड़ी के देशाें काे अपनी संस्कृति पर बहुत गर्व है। वे अपने रीति-रिवाज, परिधान, खानपान, भाषा और संस्काराें काे सदियाें से संभालकर चल रहे हैं। भारत का आधुनिक समाज अपनी संस्कृति और महान संस्काराें काे भूलते जा रहा है। हम विदेश की विकृतियाें काे अपनाते जा रहे हैं। भले ही यह बात सबके गले नहीं उतरेगी, लेकिन यह कठाेर सत्य है कि सांस्कृतिक पतन कत्लखानाें से भी अधिक खतरनाक हाेता है। पशु कभी अपनी कत्ल के लिए कताराें में खड़े नहीं हाेते। भारत का आधुनिक समाज सांस्कृतिक पतन के रूप में अपनी कत्ल के लिए कताराें में खड़ा है।

जैनाचार्य ने कहा कि घर-घर में आधुनिक व्यवहारिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए। सरकाराें काे गंदे सिनेमा, सीरियल, ओटीटी, विज्ञापन आदि माध्यमाें पर नकेल कसनी चाहिए, तभी बुराइयाें पर काबू पाया जा सकता है। संगठित सामाजिक प्रयास भी सांस्कृतिक पतन काे राेकने में कामयाब हाे सकते हैं।

गणि पद्मविमलसागरजी, मुनि मलयप्रभसागरजी आदि श्रमणजन और तेजराज मालानी, बाबूलाल भंसाली, कुशलराज गुलेच्छा, रणजीत ललवानी, तेजराज गुलेच्छा, महेंद्र रांका आदि अनेक गणमान्य लाेग समाराेह में विशेष रूप से उपस्थित थे। 

अरविंद काेठारी ने संचालन किया। महिला मंडल ने भावपूर्ण गीतिका प्रस्तुत कर कार्यक्रम का समापन किया।

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