आत्मचिंतन का समय

भोग-विलास की गहरी लालसा पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा रही है

आत्मचिंतन का समय

 थाली में पकवानों की संख्या बढ़ी है, रोग भी बढ़े हैं

आचार्यश्री विमलसागरसूरीजी ने अपने प्रवचनों में बड़ी गहरी बात कही है कि 'धन का दुरुपयोग विभिन्न समस्याओं का मूल कारण है।' आज लोगों के पास जानकारी का अभाव नहीं है। मोबाइल फोन पर हर तरह की जानकारी उपलब्ध है। सूचनाओं के अनियंत्रित प्रवाह के बीच जो तत्त्व कहीं-न-कहीं गुम हो रहा है, वह है- 'अनुशासन'। लोगों के जीवन में 'वित्तीय अनुशासन' का अभाव भी अनेक दु:ख पैदा कर रहा है। भोग-विलास की गहरी लालसा पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा रही है। आचार्यश्री ने जो कहा है, वह आधुनिक जीवनशैली पर गहन चिंतन के साथ एक ऐसी चेतावनी है, जिसे नज़रअंदाज़ करना भारी पड़ सकता है। आज कई लोग बचत और मितव्ययता को भूलकर मौज-मस्ती को प्राथमिकता दे रहे हैं। भले ही इसके लिए कर्ज लेना पड़े। कर्ज लेकर घी पीने की यह प्रवृत्ति कहां लेकर जाएगी? कोरोना काल ने हमें वित्तीय अनुशासन का महत्त्व खूब समझा दिया था। इसके बावजूद बहुत लोग वापस पुराने ढर्रे पर चल पड़े हैं। जब बात मौज-मस्ती की आती है तो वे लाखों रुपए लगाकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। हालांकि जब उनके सामने किसी अच्छी किताब का जिक्र होता है तो वे तुरंत शिकायत करने लग जाते हैं कि आजकल महंगाई बहुत बढ़ गई। उपभोक्तावाद के युग में संसाधनों का अंधाधुंध दोहन इतना बढ़ गया है कि कई जीव-जंतुओं की प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। क्या धरती पर इन्सान ही रहेगा? यह विडंबना ही है कि धरती और विभिन्न जीवों को बचाने की बातें खूब हो रही हैं, लेकिन कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा है। समर्थ एवं संपन्न वर्ग चाहे तो अपनी ज़िंदगी से एक अच्छी मिसाल पेश कर सकता है। एक अरबपति शख्स हफ्ते में एक-दो बार महंगी कार के बजाय साइकिल से चले, आलीशान दफ्तर के बजाय पेड़ की छाया में बैठकर मीटिंग करे, महंगे ब्रांड्स के बजाय लघु एवं ग्रामोद्योग आधारित उत्पादों का इस्तेमाल करे तो उसे देखकर हजारों लोग प्रेरित हो सकते हैं।

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अगर पिछले दो-तीन दशकों में हमारे खानपान में आए बदलावों पर ध्यान दें तो पता चलता है कि  थाली में पकवानों की संख्या बढ़ी है, जीभ के स्वाद में बढ़ोतरी हुई है। दूसरी ओर रोग भी बढ़े हैं। अस्पतालों में मरीजों की तादाद बढ़ी है। ऑपरेशन करवाने के लिए लाइनें बढ़ी हैं। अब स्वदेशी और सात्विक चीजों की पैरवी करने वाले को 'पुराने ज़माने' का माना जाता है। यह कहकर उसकी खिल्ली उड़ाई जाती है कि तुम प्रगतिविरोधी हो। न्यूनतम पदार्थों में संतुष्ट रहने वाले को 'कंजूस' कहकर आड़े हाथों लिया जाता है। ऐसे लोगों को पता ही नहीं कि 'संयम रखने' और 'कंजूसी का व्यवहार करने' में बहुत अंतर होता है। संयमी व्यक्ति पदार्थों का उतना ही उपभोग करता है, जितनी उसे ज़रूरत होती है। उसमें सबकुछ समेटकर अपनी ही जेब भरने की लालसा नहीं होती। अगर लोग अपने जीवन में संयम का अभ्यास करने लग जाएं तो कई रोग और समस्याएं पैदा ही न हों। यह कोई अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं है। इसे एक छोटे-से उदाहरण से समझ सकते हैं। ब्याह-शादियों और सामाजिक कार्यक्रमों में दिए जाने वाले भोज की जूठी थालियों की ओर नजर दौड़ाएं। कई लोग ज्यादा से ज्यादा पकवानों का आनंद लेने के लिए अपनी थाली भर लेते हैं। इन आयोजनों के दूसरे दिन कचरे के साथ बासी खाने का ढेर लगा रहता है। क्या ही अच्छा हो, अगर लोग उतना ही खाना लें, जितनी उन्हें जरूरत है! आयुर्वेद तो यह कहता है कि भूख से कुछ कम खाना चाहिए। अगर हमें बचपन से ही जीभ के संयम का ऐसा अभ्यास कराया जाए तो न केवल खाद्यान्न बर्बाद होने से बच सकता है, बल्कि कई रोगों से सुरक्षित रह सकते हैं। भुखमरी और कुपोषण जैसी समस्याएं समाप्त हो सकती हैं। यह आत्मचिंतन का समय है। व्यक्ति, परिवार, समाज और सरकार, सबको अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। अगर अभी सुधार नहीं किया तो भविष्य में हालात मुश्किल होंगे।

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