कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले होते हैं अरिहंत: मलयप्रभसागर
नवपद ओली आराधना का पहला दिन

नवपद आराधना के प्रथम पद में अरिहंत पद की आराधना की जाती है
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के जिनकुशलसूरी जैन दादावाड़ी ट्रस्ट बसवनगुड़ी में विराजित मुनिश्री मलयप्रभसागरजी ने शाश्वती नवपद की ओली के प्रथम दिवस पर अपने प्रवचन में कहा कि अगर अरिहंत नहीं हाेते ताे करुणा का इतना प्रचार नहीं हाेता, हमें धर्म का ज्ञान नहीं हाेता और शासन की स्थापना नहीं हाेती।
अरिहंत पद केन्द्र बिन्दु हैं। नवपद में देव, गुरु, धर्म की आराधना की गई है। इसे साध्य, साधक और साधन से भी समझ सकते हैं। हमारे साध्य अरिहंत और सिद्ध हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु साधक हैं। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्र और तप साधन हैं। शक्रस्तव अथवा नमाेत्थुणं सूत्र में अरिहंताें की उपासना की गई है।इसमें अरिहंत परमात्मा के अनेक विशेषणाें से स्तुति की गई है। अरिहंत स्वरूप का ध्यान करते हुए हमें अरिहंत में एकाकार बनना है, जिन्हाेंने राग, द्वेष रुपी शत्रुओं काे जीत लिया है वही अरिहंत हैं। अरिहन्ताें का पुण्य प्रचंड हाेता है। जैन जगत में नवपद की महिमा अपरंपार है। नवपद यानी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप।
नवपद आराधना के प्रथम पद में अरिहंत पद की आराधना की जाती है, अरि यानी शत्रु और हंत यानी नाश करने वाले मतलब शत्रुओं का नाश करने वाले अरिहंत कहलाते हैं। अरिहन्त अपने कर्म रूपी शत्रु का नाश करते हैं। जगत में पूजनीय, वंदनीय, सेवनीय और तारने वाले ये अरिहंत ही उत्तम आत्मा है।